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________________ -५. ४५ ] भावप्राभृतम् ३१५ केऽशनिः पतिष्यति इत्यभिज्ञानेन त्वं 'सप्तमं नरकं यास्यसि । तदाकण्य राजा भीत्वा पर्वताय निवेदयामास । पर्वतः प्राह - राजन्नसौ नग्नः क्षपणकः किं वेत्ति तथापि यदि तव शंका वर्तते तदत्र शान्तिविधीयते इति वचनस्तस्य मनः सम्धार्य शिथिलीचकार । पुनः सुमित्रमेव यज्ञं प्रारब्धवान् । ततः सप्तमे दिने पापासुरस्य मायया सुलसा आकाशे स्थिता देवत्वं प्राप्ता पूर्वं पश्चग्रेसरी यागमृत्युफलेनैषा मया देवगतिर्लब्धा ? तं प्रमोदं तव निरूपयितुमहं विमानेनागता तव यज्ञेन देवाः पितरश्च प्रोणिता इत्यभाषत । तद्वचनात्प्रत्यक्षं यागमृत्युफलं दृष्टं, जैनमुनेर्वाक्यमसत्यं जातं । तदनु राजा तत्तीव्र ेण हिसानुरागेण सद्धर्मद्वेषेण संजातदुष्परिणामेन मूलोत्तरविकल्पितात् तत्प्रायोग्य समुत्कृष्टदुष्टसं क्लेश साघनात् नरकायुराद्यष्टकर्मस्वोचितस्थितेः अनुभागबन्धनिकाचितबन्धने सति भीषणाशनिरूपेण कालासुरेण तमस्तके पतिते सति यागकर्मासक्तनिखिलप्राणिभिः सह सगरः सप्तमे नरके पपात । स कालासुरस्तत्क्षणेन महाक्रोधस्तं दण्डयितु तृतीयनरकपर्यन्तं पृष्ठतो जगाम । तमदृष्ट्वा साकेतमागतः विश्वभू प्रभृतिवैरिवर्गमारणार्थ ४ निःशूकः सुलसा संयुक्तं सगरं विमानमारूढं व्योम्नि दर्शयामास । पर्वतप्रसादेन यज्ञपुण्येनाहं गये थे मैं उन सब में अग्रे सरो हूँ — प्रधान हूँ । यज्ञ में मृत्यु होने के फल स्वरूप ही मुझने यह देव गति पाई है । उस आनन्द को तुम्हें बतलाने के लिये मैं विमान से आई हूँ । तुम्हारे यज्ञसे सब देव तथा पूर्व पुरुष प्रसन्न हुए हैं। सुलसाके कहने से यज्ञमें मरनेका फल प्रत्यक्ष दिख गया, इसलिये जैन मुनि का कहना असत्य होगया । तदनन्तर राजा सगरको तीव्र हिसाके अनुराग, समीचीन धर्मके साथ होनेवाले द्वेष तथा मूल प्रकृति और उत्तर - प्रकृति के विकल्पसे युक्त उस पर्याय में होने योग्य सर्वाधिक दुष्ट संक्लेशके कारणों से उत्पन्न होनेवाले खोटे परिणामों से नरकायु आदि आठ कर्मोंका अपने योग्य स्थिति बन्ध तथा अनुभाग बन्धका निकाचित बन्ध होगया । उसी समय भयंकर वज्ररूप कालासुर (यमराज) मस्तक पर गिरा जिससे यज्ञ कार्य में लगे समस्त प्राणियों के साथ राजा सगर सातवें नरक में जा पड़ा । महाक्रोधसे भरा कालासुर उसे दण्ड देनेके लिये उसी समय तीसरे नरक तक पीछे पीछे गया परन्तु उसे वहाँ न देखकर अयोध्या को लौट आया । वहाँ आकरके उस दुष्टने विश्वभू मन्त्री आदि १. सप्तमे म० । २. राजा तीव्रण १० ३. काकातुरेण क० । Jain Education International ४. निर्णय: ( क० टि० ) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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