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________________ -६. १२ ] मोक्षप्राभूतम् ५७५ ( जो देहे णिरवेक्खो ) यो योगी देहे शरीरे निरपेक्ष उदासीनो ममत्वेन च्युतः । ( हिंदी निम्ममो निरारंभो ) निर्द्वन्द्वो निष्कलहः केनापि सह कलहर - हित । अथवा निर्द्वन्द्वो नियुग्मः स्त्रीभोगरहितः "द्वन्द्वं कलहयुग्मयोः" इति वचनात् । निर्ममो ममत्वरहितः, ममेति अदन्तोऽव्ययशब्दः निर्गतं ममेति परिणामो यस्येति निर्ममः । उक्तं च 'अकिंचनोऽहमित्यास्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः । योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥ १ ॥ निरारंभ: सेवाकृषिवाणिज्यादिकमंरहितः । उक्तं च आरंभे णत्थि दया महिलासंगएण णासए बंभं । संकाए सम्मत्तं पव्वज्जा अत्थगहणेण ॥ १ ॥ आरम्भ रहित है और आत्म-स्वभाव में सुरत है - संलग्न है, वह योगी निर्वाणको प्राप्त होता है ॥ १२ ॥ | विशेषार्थ - जो योगी शरीर में निरपेक्ष है - उदासीन है । निर्द्वन्द्वकलह रहित है अथवा 'द्वन्द्वै कलहयुग्मयो:' इस कोशके वचन के अनुसार द्वन्द्वका अर्थ स्त्री पुरुषका युगल भी होता है, अतः निर्द्वन्द्व है - अर्थात् स्त्री भोग रहित है । निर्मम है अर्थात् ममता भाव से रहित है । 'मम' यह अदन्त अव्यय शब्द है उसका अर्थ 'यह मेरा है' इस प्रकार का परिणाम है। योगी निर्मम होता है अर्थात् मम परिणामों से सबंधा रहित है जैसा कि कहा है--- अकचिनोऽहं - हे आत्मन् ! 'मैं अकिञ्चन हूँ - मेरा मेरे पास कुछ नहीं है' यह विचार कर तुम चुपचाप बैठ जाओ क्योंकि ऐसा करने से तुम तीन लोक अधिपति हो सकते हो। मैंने परमात्मा का यह योगिगम्य रहस्य तेरे लिये कहा है । 4 जो योगी निरारम्भ है अर्थात् सेवा कृषि वाणिज्य आदि कार्योंसे रहित है। कहा है। आरंभ - आरम्भ में दया नहीं है, स्त्रियों की संगति से ब्रह्मचर्यं नष्ट हो जाता है, शङ्का से सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है और धन के ग्रहण करने से प्रव्रज्या - दीक्षा नष्ट हो जाती है ! बास्मानुशासने । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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