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________________ -६. १२] मोक्षप्राभृतम् ५७७ तथा स्त्रीणामपि मुक्तिर्न भवति महाव्रताभावात् । तदपि कस्मान्न भवति ? कक्षयोः स्तनयोरन्तरे नाभौ योनौ च जीवानामुत्पत्तिविनाशलक्षणहिंसासद्भावात्, निःशंकत्वाभावात्, वस्त्रपरिग्रहात्यजनात्, अहमिन्द्रपदमपि न लभन्ते कथं निर्वाणमिति हेतोश्च । यदि च स्त्रियोमुक्ता भवन्ति तर्हि तत्पर्यायमूर्तयः कथं न पूज्यन्ते । सर्वथा दुर्मतं विहाय पुरुषस्यैव मुक्तिमन्तव्येति भावः । परलिंगे च मुक्तिनं भवति मिथ्यात्वदूषितत्वात्, दण्डकमण्डलुमृगचर्मकर्माशर्मकारणात् । तद्विस्तरेण प्रमेयकमलमार्तण्डादिषु शास्त्रेषु ज्ञातव्यं । सज्जातिज्ञापनार्थ स्त्रीणां महाव्रतान्युपचर्यन्ते न परमार्थतस्तासां महाव्रतानि सन्ति तेन मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वन्दनापि न युक्ता । यदि ता वन्दन्ते तदा मुनिभिर्नमोऽस्त्विति न वक्तव्यं, किं तहि वक्तव्यं ? समाधिकर्मक्षयोस्त्विति । ये तु परस्परं मत्थएण वंदामीति आर्याः प्रतिवन्दन्ति तेऽप्यसंयमिनो ज्ञातव्याः । दिगम्बराणां मते या नीतिः कृता सा प्रमाणमिति मन्तव्यं । उक्तं च वरिससदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू ।। अभिगमण वंदण नमसणेण विणएण सो पुज्जो ॥१॥ होता है । एक हेतु यह भी है कि स्त्रियाँ अहमिन्द्र पद भी नहीं प्राप्त कर सकती हैं फिर मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकती हैं ? यदि स्त्रियां मुक्त होती हैं तो उस पर्यायकी मूतियाँ क्यों नहीं पूजी जाती हैं ? अतः सब प्रकारके दुराग्रह को छोड़कर पुरुष की ही मुक्ति होती है, ऐसा मानना चाहिये । - अन्य लिङ्ग में भी मुक्ति नहीं होती क्योंकि वह मिथ्यात्व से दूषित है .: तथा दण्ड कमण्डलु मृगचर्म और आरम्भ आदिके कार्यों से दुःख का कारण है। इसका विस्तार से वर्णन प्रमेय-कमल-मार्तण्ड आदि शास्त्रों में : जानना चाहिये। सज्जातित्व बतलाने के लिये स्त्रियों के महाव्रतों का उपचार होता है, - परमार्थ से उनके महाव्रत नहीं होते। इसलिये मुनि और आर्यिका को परस्पर वन्दना करना युक्त नहीं है । यदि आर्यिकाएं वन्दना करती हैं तो मुनियों को 'नमोऽस्तु' नहीं कहना चाहिये किन्तु 'समाधिकर्मक्षयोऽस्तु'समाधि के द्वारा कर्मोंका क्षय हो, ऐसा कहना चाहिये। इतना होने पर भी जो परस्पर 'मत्थएण वंदामि'-मस्तकसे वन्दना करता हूँ, यह कह कर आयिकाओं को बदले में वन्दना करते हैं वे भी असंयमी हैं, ऐसा जानना चाहिये। दिगम्बरों के मत में जो नीति प्रचलित है उसे ही प्रमाण मानना चाहिये । कहा भी है परिसलय-आर्या सौ वर्ष की भी दीक्षित हो और साधु आज ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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