SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 529
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७६ षट्प्राभृते अश्रुपातरच दुःखेन पिंडपातश्च हस्ततः । काका दिपिण्डहरणं पतनं त्यक्तसेवनम् ||६|| पादान्तराला पंचाक्ष' जातिपंचेन्द्रियात्ययः । स्वोदरकृमिविण्मूत्ररक्तपूयादिनिर्गमः निष्ठीवनं सदंष्ट्राङ्गि दर्शनं चोपवेशनं । पाणिवक्त्रेऽत्र साङ्गास्थिनखरोमादिदर्शनम् ॥८॥ प्रहारो ग्रामदाहोऽशुभोग्रबीभत्सवाक्श्रुतिः । उपसर्गः पतन पात्रस्यायोग्य गृहवेशनम् ॥ ९॥ Jain Education International १. जातिः क० । २. दशनं दर्शनं म० घ० क० । ३. साङ्गयस्विक० । 11611 पक्षी झपटकर हाथ से ग्रास उठा ले जावे, आहार लेनेवाला दुर्बलता आदि के कारण गिर पड़े, छोड़ी हुई वस्तु सेवन में आजावे, मुनिके पैरों के बीच से कोई पञ्चेन्द्रिय जीव निकल जावे, अपने उदर से कृमि, विष्ठा, मूत्र, रक्त तथा पोप आदि निकल आवे, थूक देना, डाढ़ों वाले कुत्ता आदि प्राणी काट खावें, दुर्बलता के कारण बैठ जाना पड़े, हाथ अथवा मुखमें किसी मृत जन्तु हडडी, नख अथवा रोम आदि दिख जावे, कोई किसी को मार दे, गाँव में आग लग जावे, अशुभ, कठोर और घृणित शब्द सुनने में आजावे, उपसर्ग आजावे, दाता के हाथ से पात्र गिर पड़े, अयोग्य मनुष्यके घर में प्रवेश हो जाय और घुटने से नीचे भागका स्पर्श हो जाये, इत्यादि अनेक अन्तराय माने गये हैं । इन अन्तरायोंमें कितने ही अन्तराय लोक रीति से उत्पन्न होते हैं जैसे ग्राम दाह आदि । यदि इस समय मुनि आहार नहीं छोड़ते हैं तो लोक में अपवाद हो सकता है कि देखो गाँव के लोग विपत्ति में पड़े हैं और ये भोजन किये जा रहे हैं । कुछ संयम की अपेक्षा उत्पन्न होते हैं जैसे भोजन जीवजन्तुओंका निकलना आदि । कुछ वैराग्य के निमित्त से होते हैं जैसे साधुका गिर पड़ना आदि । इस समय साधु सोचते हैं कि देखो यह शरीर इतना अशक्त हो गया कि स्ववश खड़ा नहीं रहा जाता और मैं आहार किये जा रहा हूँ । कुछ अन्तराय जुगुप्सा अर्थात् ग्लानिकी अपेक्षा होते हैं जैसे पेटसे कृमि तथा मलमूत्रके निकल आने पर ग्लानि का भाव उत्पन्न होता है । और कितने ही अंतराय संसारके भयसे उत्पन्न होते हैं जैसे काक आदि पक्षियोंके द्वारा 1 [ ५.९९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy