SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८३ -५. ३२] भावप्रामृतम् मतिर्निमायः चरणदर्शनविशुद्धः धृतिमान् ज्ञानसहायोऽनिदानोऽहंदन्तिके आलोचनामासाद्य 'कृतशुद्धिलेश्यः प्राणापाननिरोधं करोति यत्तद्विप्पाणसमरणमुच्यते । शस्त्रग्रहणेन यद्भवति तद्गध्रपृष्ठमित्युच्यते । मरणविकल्पसंभवप्रदर्शनमिदम् सर्वत्र कर्तव्यतयोपदिश्यते । भक्तप्रत्याख्यानं, प्रायोपगमनमरणं, इंगिनीमरणं, केवलिमरणं चेति । इत्येतान्येवोत्तमानि पूर्वपुरुषः प्रवतितानि । सप्तदशसुमध्ये त्रीण्युत्तमानि सुमरणानि । प्रायोपगमनं दर्भासने स्थितः स्वयमुपसर्ग न निवारयति, जाऊं, मैं बेदना से संक्लिष्ट होकर दीक्षाका निर्वाह करनेमें समर्थ नहीं हूँ, इन सब काः मेरो रत्नत्रयकी आराधना छटने वाली है"इस प्रकार का जिसे निश्चय हुआ है जिसने अपराधको छिपाने रूप मायाका त्याग कर दिया है, जो चारित्र और दर्शनमें विशुद्धता रखता है, धर्यसे सहित है, ज्ञान ही जिसका सहायक है, और जो निदान से रहित है, अरहन्त भगवान्के समीप आलोचना को प्राप्त कर जिसने अपनी लेश्याको शुद्ध कर लिया है, ऐसा मुनि जो श्वासोच्छवासका निरोध करता है, वह विप्राणस मरण कहलाता है। १३. गृध्रपृष्ठमरण-उपर्युक्त कारण उपस्थित होनेपर शस्त्र ग्रहण करके जो मरण किया जाता है वह गृध्रपृष्ठ मरण है। - इसप्रकार मरणके जितने विकल्प सम्भव होसकते हैं उनका प्रदर्शन किया गया है। अब सर्वत्र करने योग्य मरणोंका उपदेश किया जाता है। भक्त-प्रत्याख्यान, प्रायोपगमन, इङ्गिनीमरण और केवलि-मरण । ये मरण हो उत्तम-मरण हैं तथा पूर्व-पुरुषों के द्वारा प्रवर्तित हैं। १४. भक्त प्रत्याख्यानमरण--एक साथ जीवन पर्यन्तके लिये अथवा क्रम क्रमसे कुछ समयको अवधि लेते हुए आहारका त्याग करके जो समाधिमरण किया जाता है, उसे भक्त-प्रत्याख्यान कहते हैं। उपयुक्त सत्तरह मरणोंमें प्रायोपगमन, इङ्गिनीमरण और केवलि-मरण ये तीन .मरण उत्तम मरण कहलाते हैं। १५. प्रायोपगमन मरण-प्रायोपगमन मरणमें कुशासन पर बैठा हुआ मुनि स्वयं उपसर्गका निवारण नहीं करता है, यदि कोई दूसरा करता है तो करने देता है। १. कृतशुद्धिलेश्य म०। २. केवल म०। Jain Education International *** For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy