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बतलाया गया है । यहाँ कर्म, भावलिंग, अपरिग्रह संबंधी अनेक विषयोंका गहन विवेचन है | सम्यग्दर्शन सहित ही व्रत धारणकी प्रेरणा दी गई है।
६. मोक्ख पाहुड - इसमें १०६ गाथायें है जिनमें बन्ध और मोक्षका स्वरूप, - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा - आत्माके इन तीन भेदोंका निरूपण तथा मोक्षके कारण रूप परमात्याके ध्यानकी आवश्यकता और महत्ता बतलाई है । भट्टारक श्रुतसागरसूरिने उपयुक्त छह पाहुडों पर ही संस्कृत भाषामें टीका लिखी है ।
७. लिंग पाहुड - वस्तुतः इस पाहुडका नाम " समणलिंग पाहुड" होना चाहिए। जैसाकि ग्रन्थकारने प्रथम गाथामें सूचित भी किया है । इस पाहुडमें श्रमणके लिङ्ग (वेष) को लक्ष्य करके उसके निषिद्ध आचरणोंके प्रति सावधान किया गया है।
८. सील पाहुड - शीलका महत्व प्रतिपादन करने वाले अष्ट पाहुडके इस अंतिम पाहुडमें चालीस गाथायें हैं । इसमें कहा है कि शीलका ज्ञानके साथ कोई विरोध नहीं है किन्तु शील के बिना विषयवासनासे ज्ञान नष्ट हो जाता है । शील विषयोंका शत्रु है और मोक्षका सोपान है । यहाँ जीवदया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, इन्द्रियदमन, सम्यक् दर्शन-ज्ञान तथा तप आदिको शीलके अन्तर्गत माना गया है ।
उपयुक्त आठ पाहुडोंके अध्ययनसे यह बात स्पष्ट होती है कि इन आठोंका अपना-अपना स्वतंत्र और मौलिक ग्रन्थोंके रूपमें महत्त्व है । यद्यपि " षट्पाहुड" नामसे श्रुतसागरीय संस्कृत टीका सहित अनेक प्राचीन पाण्डुलिपियाँ प्राप्त होती हैं किन्तु कुछ पाडुलिपि एक-एक पाहुडकी भी उपलब्ध हैं । वस्तुतः षट्प्राभृत या अट्ठ पाहुड कोई एक अलग ग्रंथ नहीं है अपितु पृथक्-पृथक् छोटे-बड़े छह या आठ पाहुड ग्रन्थोंको षट्प्राभृत या अट्ठ पाहुड नाम देकर एक साथ संग्रहीत कर दिया गया प्रतीत होता है । शोधकी दृष्टिसे इनमें इतनी महत्वपूर्ण सामग्री है कि प्रत्येक पर पृथक्-पृथक् शोध प्रबन्ध लिखे जा सकते हैं । विश्वविद्यालयोंके पाठ्यक्रममें इनका निर्धारण करके भी इनके व्यापक अध्ययन एवं अनुसंधानके नये क्षेत्र उद्घाटित किये जा सकते हैं ।
भट्टारक श्रुतसागरसूरि और उनको प्रस्तुत टोका
यह विदित ही है कि 'षट्प्राभृत' पर प्रस्तुत संस्कृत टीकाके लेखक १६वीं शतीके विद्वान् भट्टारक श्रुतसागर सूरि हैं । ये मूलसंघ, सरस्वती गच्छ बलात्कार
१. प्राकृत विद्या अक्टूबर १९८८ पृ० ३३.
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