________________
६१२
षट्प्राभृते
[ ६. ४६
अपि अंगुष्ठप्रसेनाप्रभृतयः सप्तशतक्षुद्र विद्यास्तस्य सिद्धाः । विद्यासामर्थ्येन सिंहो भूत्वा जनं भीषयति । तद्वृत्तान्तः केनचित् सात्यकेनिरूपितः । गुरुणा स ऊचे - मुने! तव स्त्रीहेतुना विनाशो भविष्यति । तद्भुत्वा यत्र स्त्रीमुखं न पश्यामि तत्राहं तपः करिष्यामीति कैलासपर्वतं गत्वा तपः कतु लग्नः । तावद्विजया - दक्षिणश्रेणौ मेघनिबद्धपत्तने कनकरथो नाम विद्याधरनरेन्द्रः । तद्देवी मनोरमा । देवदारुविद्युद्रसनौ द्वौ पुत्रौ । एकदा देवदारुं राज्ये स्थापयित्वा विद्युज्जिन्हं च युवराजं कृत्वा कनकरथो गुणघरगुरुचरणमूले दीक्षां जग्राह । प्रज्ञप्तिविद्याप्रभावेण विद्युज्जिव्हेन देवदारुजतो निर्धाटितः । कैलासमागत्यसपरिवारो विद्यापुरं कृत्वा निर्भयः स्थितः । तस्य देवदारोः चतस्रो महादेव्यः सन्ति योजनगन्धा, कनका, तरंगवेगा, तरंगभामिनी चेति । चतस्रोऽप्यतिमनोहरशरीराः योजनगन्धायां षिला गन्धमालिनी चेति द्वे धूदे जाते अतिविनीते । कनकायां कनकचित्रा कनकमाला चेति धूदे द्वे जाते तरंगवेगायं तरङ्गसेना तरङ्गवती चेति द्वे कन्ये संजाते ।
चार जानकर स्वयंभू उत्तर गोकर्ण पर्वत पर गया और सात्यकि मुनिको नमस्कार कर वैराग्य वश दिगम्बर साधु हो गया तथा उसी उत्तर गोकर्ण पर्वत पर रहने लगा। गुरु की शिक्षा से मन रोककर उसने ग्यारङ्ग अङ्ग सीख लिये । वहाँ उसे महान् अतिशय से युक्त रोहिणी आदि पांचसौ विद्याएँ आकर सिद्ध हो गईं। विद्या की सामर्थ्य से वह सिंह बन कर लोगोंको डराने लगा। यह समाचार किसीने उसके गुरु सात्यकि मुनि से कह दिया । तब गुरु ने उससे कहा कि हे मुने ! स्त्री के कारण तुम्हारा विनाश होगा | गुरुके वचन सुनकर वह कहने लगा कि 'मैं जहाँ स्त्री का करूँगा' ऐसा कह कर वह कैलाश पर्वत पर
मुख न देख सकूँ वहाँ तप जाकर तप करने लगा ।
उसी समय विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी पर मेघनिबद्ध नामक नगर में कनकरथ नामका विद्याधरोंका राजा रहता था । उसकी स्त्री का नाम मनोरमा था । उन दोनोंके देवदारु और विद्युज्जिह्व नामके दो पुत्र थे। एक दिन देवदारु को राज्य पर स्थापित कर तथा विद्युज्जिह्न को युवराज बनाकर राजा कनकरथ ने गुणधर गुरुके पाद मूल में दोक्षा ले ली । उधर प्रज्ञप्ति विद्या के प्रभाव से विद्युज्जिह्व ने देवदारु को जीतकर निकाल दिया जिससे वह कैलास पर्वत पर आकर तथा विद्या से एक नगर
१. सत्यः म० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org