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________________ षट्नाभृते [५.२वयं भावलिंगिनो वर्तामहे दीमायामन्तर्भावत्वात्ते मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्या विशिष्टजिनलिंगविद्वेषित्वात्, योद्धमिच्छवः कातरवत्स्वयं नश्यन्ति, अपरानपि नाशयन्ति, ते मुख्यव्यवहारधर्मलोपकत्वाद्विशिष्टदण्डनीयाः। ( भावो कारणभूदो ) भावः परममुक्तिकारणभूतः । ( गुणदोसाणं ) गुणानां केवलज्ञानादीनां, दोषाणां नरकपातादीनां च कारणभूतो भाव एव । यदि द्रव्यलिंगं धृत्वा रागद्वेषमोहादिषु पतति लिंग होता है उसके द्रव्य लिंग होता.ही है पर जिसके द्रव्य-लिंग है उसके । भावलिंग होता भी है और नहीं भी होता है। जिनेन्द्र भगवान् ने मोक्षप्राप्ति के लिये दोनों लिंगों को आवश्यक बतलाया है । द्रव्य-लिंग के बिना मात्र भावलिंग से मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता और भाव-लिंगके बिना मात्र . द्रव्य-लिंग से आत्माका कल्याण नहीं हो सकता। यहाँ भाव-लिंग पहले होता है । इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिये कि सप्तम गुणस्थानका भाव पहले होता है और वस्त्र-त्याग रूप द्रव्यलिंग पीछे होता है क्योंकि ऐसा मानने से सवस्त्र अवस्थामें सप्तम गुणस्थान मानना पड़ेगा, पर ऐसा मानना शास्त्र-सम्मत नहीं है। इसलिये प्रथम भावलिंग होता है, इसका अर्थ यह है कि संसार की मोह-ममतामें लीन प्राणी प्रथम उससे विरक्ति का दृढ़ निश्चय करता है-मैं परिग्रह त्याग कर दैगम्बरी दीक्षा धारण करूँ, ऐसा भाव हृदय में उत्पन्न करता है। इस भावना से प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय उत्तरोत्तर मन्दसे मन्दतर होता जाता है, उसी मन्द मन्दतर अवस्थामें वह केशलोंच तथा वस्त्र-त्याग आदिकी क्रिया करता है और उसके बाद सप्तम गुणस्थान को प्राप्त होता है। तदनन्तर सप्तम गुणस्थान से गिरकर छठवें गणस्थान में होता है। इसका यह छठवें सातवें गुणस्थानका क्रम हजारों बार चलता रहता है। संस्कृत टीकाकार ने जो यह लिखा है कि 'द्रव्यलिंग धारण कर भावलिंग प्रकट किया जाता है' वह इसी अभिप्राय से लिखा है कि केशलोंच तथा वस्त्र-त्याग आदिकी क्रिया पहले हातो है, सप्तम गुणस्थान का भाव पीछे होता है । करणानुयोम की अपेक्षा भावों की गति का पहिचानना प्रत्येक व्यक्तिके लिये शक्य नहीं है, अतः मुनि या श्रावकके आचारको व्यवस्था चरणानुयोगके आधार पर ही शास्त्रकारों ने की है, करणानुयोग के आधार पर नहीं। इस स्थिति में जो अन्य साधु वस्त्र धारण कर गृहस्थ के वेष में रहते हुए भी यह कहते हैं कि हम भाव-लिंग की अपेक्षा मुनि हैं, द्रव्य-लिगको अपेक्षा नग्न नहीं हुए. तो क्या हुआ ? सो उनका वैसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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