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________________ -४. ३४ ] बोधप्रामृतम् १९५ क्षायिकसम्यक्त्वम् । ( सण्णि ) संज्ञिद्वयमध्येऽर्हन् संज्ञी ह्येक एव । ( आहारे ) आहारकानाहारकद्वयमध्येऽर्हत आहारकानाहारकद्वयम् ॥३३॥ आहारो य सरीरो' तह इंदिय आणपाणभासा य । पज्जत्तिगुणसमिद्धो उत्तमदेवो हवइ अरहो ॥ ३४ ॥ आहारश्च शरीरं तथा इन्द्रियानप्राणभाषाश्च । पयाप्तिगुणसमृद्धः उत्तम देवो भवति अर्हन् ||३४|| ( आहारो य सरीरो ) आहार: समयं समयं प्रत्यनन्ताः परमाणुवोऽनन्यजनसाधारणाः शरीरस्थिति हेतवः पुण्यरूपाः शरीरे सम्बन्धं यान्ति, नोकरूपा अहंत आहार उच्यते नत्वितर मनुष्यवद्भगवति कवलाहारो भवति तस्मान्निद्रा ग्लानिरुत्पद्यते कथं भगवानर्हन् देवता कथ्यते । कवलाहारं भुञ्जानो मनुष्य एव । तथा चोक्तं समन्तभद्रेण भगवता - आहारक अनाहारक की अपेक्षा दो भेद हैं इनमें से अर्हन्त के दोनों भेद सम्भव हैं | तेरहवें गुणस्थान में सामान्यरूप से आहारक हैं और समुद्घात की अपेक्षा अनाहारक हैं तथा चौदहवें गुणस्थान में अनाहारक ही हैं ।। ३३ ।। आगे पर्याप्ति की अपेक्षा अरहन्त का वर्णन करते हैं गाथार्थ - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ हैं । अरहन्त भगवान इन पर्याप्तियों के गुण से समृद्ध तथा उत्तम देव हैं || ३४ ॥ विशेषार्थ - दूसरे मनुष्यों में न पाये जाने वाले शरीर की स्थिति के कारण, पुण्य रूप, नोकर्म वर्गणा के अनन्त परमाणु प्रतिसमय अरहन्त . भगवान् के शरीर के साथ सम्बन्धको प्राप्त होते हैं वही आहार कहलाता है, ऐसा आहार ही अरहन्त भगवान के होता है अन्य मनुष्यों के समान कवलाहार नहीं होता क्योंकि उससे निद्रा और ग्लानि उत्पन्न होती है । यदि भगवान अरहन्त कवलाहार ग्रहण करते हैं तो वे देवता कैसे कहे जा सकते हैं क्योंकि कवलाहार खाने वाला मनुष्य ही होता है। जैसा कि भगवान् समंतभद्र ने कहा है Gend १. सरीरो इन्द्रियमण आग ग० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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