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________________ १९६ षट्प्राभृते 'मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः । तेन नाथ परमाऽसि देवता श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद नः ॥ क्षुद्वेदनायां कवलाहारं भुञ्जानो भगवान् कथमनन्तसौख्यवानुच्यते वेदनायां सुखच्छेदत्वादित्यादि प्रमेयकमलमार्तण्डादिषु कवलाहारस्य निषिद्धत्वात् स्त्रीमुक्तेरपि । शरीर-पर्याप्तिः । ( तह इंदिय आणपाण भासा य ) तथा इन्द्रियपर्याप्तिः, आनप्राण पर्याप्तिः कोऽथः ? उच्छ्वास निःश्वासपर्याप्तिः भाषा, पर्याप्तिः चकारान्मनः पर्याप्तिः, एवं कायवाङ्मनसां सत्तायां सत्यामपि भगवतः कर्मबन्धो नास्ति जीवन्मुक्तत्वात्तस्य । तथा चोक्तम् — २कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर ! तावक मचिन्त्यमीहितम् ॥ मानुषीं - हे नाथ ! हे जिनेन्द्र ? आप चूंकि ( आहार आदि के विषय में ) मनुष्य की प्रकृति का उल्लंघन कर चुके हैं, अतः देवताओं में भी देवता हैं । आप उत्कृष्ट देवता हैं, इसलिये हमारे कल्याण के लिये प्रसन्न हूजिये । [ ४. ३४ क्षुधा की वेदना होने पर यदि भगवान कवलाहार करते हैं तो वे अनन्तसुखसे सहित क्यों कहे जाते हैं ? क्योंकि वेदना होने पर सुख का घात हो जाता है । इत्यादि रूपसे प्रमेय-कमल-मार्तण्ड आदि ग्रन्थों में कवलाहार का निषेध किया गया है तथा स्त्रीमुक्ति का भी खण्डन किया गया है। , आहार पर्याप्ति के सिवाय शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासो - च्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और चकार से मनःपर्याप्ति भी अरहन्त के होती हैं। इस प्रकार काय वचन और मनकी सत्ता रहते हुए भी भगवान् के कर्मबन्ध नहीं होता क्योंकि वे जोवन्मुक्त हो चुके हैं। जैसा कि कहा गया है कायवाक्य - मुनीन्द्र ! आपके शरीर वचन और मनकी प्रवृत्तियाँ करने की इच्छा से प्रवृत्त नहीं होती हैं, किन्तु स्वयं होतो हैं, यह ठोक है, फिर भी आपकी प्रवृत्तियाँ वस्तुरूपको यथावत जाने बिना नहीं होती। इस तरह हे धोर वीर भगवन् ! आपकी चेष्टा अचिन्त्य है । १. बृहत्स्वयंम्भू स्तोत्रे । २. बृहत्स्वयंभू स्तोत्रे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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