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-३. २३ ]
सूत्रप्राभृतम्
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क्षुल्लिकापि संव्यानवस्त्रेण सहिता भवति । ( वत्थावरणेण भुजेइ ) भोजनकाले एक शाटकं धृत्वा भुङ्क्ते संव्यानमुपरितनवस्त्रमुतायं भोजनं कुर्यादित्यर्थः ॥२२॥ ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो । णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥
नापि सिध्यति वस्त्रधरो जिनशासने यद्यपि भवति तीर्थकरः । नग्नो विमोक्षमार्गः शेषा उन्मार्गकाः सर्वे ॥ २३॥ ( ण वि सिज्झइ वत्थधरो ) नापि सिद्धयति नैव सिद्धिमात्मोपलब्धिलक्षणं मुक्ति लभते वस्त्रधरो मुनिः । ( जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो ) जिनशासने श्रीवर्धमान स्वामिनो मते यद्यपि भवति तीर्थंकरः तीर्थंकरपरमदेवोऽपि यदि भवति । गर्भावतारादिपञ्चकल्याणवानपि सिद्धो न भवति, आस्तां तावदन्योSaगार केवल्यादिकः । ( णग्गो विमोक्खमग्गो ) नग्नो वस्त्राभरणरहितो विमोक्ष
ही दोनों भोजन करती हैं । अर्थात् आर्यिका के पास तो एक साड़ी है पर क्षुल्लिका ऊपर का वस्त्र ( चद्दर) उतार कर भोजन करती है ॥२२॥
गाथार्थ - जिन शासन में कहा है कि वस्त्रधारी पुरुष सिद्धि को प्राप्त नहीं होता भले ही वह तीर्थंकर भी क्यों न हो ? नग्न वेष ही मोक्ष - मार्ग है शेष सब उन्मार्ग हैं, मिथ्या मार्ग हैं ||२३||
विशेषार्थ - श्री अन्तिम तीर्थंकर श्रीवर्धमान स्वामी के मत में कहा गया है कि यदि तीर्थंकर भी हो अर्थात् गर्भावतरण आदि पञ्च कल्याणकों के धारक तीर्थंकर परम देव भी हों तो भी वस्त्र के धारक मुनि स्वात्मोपलब्धि रूप लक्षणसे मुक्त - सिद्धि को प्राप्त नहीं हो सकते। जब तीर्थंकर भी सवस्त्र अवस्था में सिद्ध नहीं हो सकते तब अन्य अनगार केवली आदिकी बात तो दूर हो रही । वस्त्राभूषणसे रहित नग्न वेष ही विशिष्ट मोक्षका मार्ग है ऐसा जानना चाहिये । शेष श्वेताम्बरादिकों के मत उन्मार्ग रूप हैं, निन्दनीय हैं और मिथ्या रूप हैं, ऐसा विद्वानोंको जानना चाहिये ॥२३॥
[ तीर्थंकर भगवान् नियम से मोक्षगामी हैं परन्तु जब तक वे गृहस्थ अवस्था में रहते हैं - वस्त्राभूषण आदि परिग्रह धारण करते हैं तब तक मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते। जब तीर्थंकर जैसे महापुरुषों को भी मोक्षप्राप्ति के उद्देश्य से नग्न होना पड़ता है - समस्त परिग्रह का त्याग करना पड़ता है, तब साधारण पुरुषों की तो बात ही क्या है ? नग्न होना बाह्याभ्यन्तर परिग्रह के त्याग का उपलक्षण है, अतः परिग्रह के रहते
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