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षट्प्राभूते
[ ९.९
मवश्यं संयम सपोनियम — योग - गुणधारी । ( तस्स य दोस कहता) तस्य च दोषान् कथयन्तः आरोपयन्तः केचित्पापिष्ठाः । ( भग्गा भग्गतणं दिति) स्वयं
आचार्य से प्रायश्चित लेना और साथ ही यह अभिप्राय रखना कि जब आचार्य स्वयं यह अपराध करते हैं तो दूसरे को दण्ड क्या देखेंगे ?
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु ओर कर्णं इन पाँच इन्द्रियों को जोतना तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय इन पाँच, प्रकार के जीवों की प्राणरक्षा करना; दश प्रकार का कायसंयम है ।
इस प्रकार जो कोई आत्मस्वभाव, उत्तम क्षमादि दशलक्षण, पाँच अथवा तेरह प्रकार के चारित्र, अथवा प्राणिरक्षणरूप धर्म का निरन्तर अभ्यास करता है, बारह प्रकार का संयम, बारह प्रकार का तप, यम और नियम रूप भोगोपभोग का परिमाण, वर्षादियोग अथवा आत्मध्यान रूप योग तथा चौरासी लाख उत्तरगुणों को धारण करता हुआ निर्दोष : चारित्र पालता है फिर भी मात्सर्यवश उसे यदि कोई दोष लगाते हैंउसकी निन्दा करते हैं - तो वे चारित्र से स्वयं भ्रष्ट हैं और दूसरे लोगों को भी चारित्र से भ्रष्ट कर देते हैं।
[उपगूहन अङ्ग की रक्षा करता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव जब किसी के विद्यमान दोषों को भी नहीं कहना चाहता तब अविद्यमान -- कल्पित दोषों की कैसे कहेगा ? किसी के दोष कहने के पहले यदि मनुष्य आत्मनिरीक्षण कर ले अर्थात् यह दोष मुझमें तो नहीं हैं, इस प्रकार का चिन्तन कर ले तो उसकी परदोष कथन की प्रवृत्ति सहज ही छूट सकती है । आज दूसरे के दोष कहनेवाले मनुष्य अपनी ओर तो देखते ही नहीं हैं मात्र दूसरे के ही दोष देखा करते हैं । आचार्य समन्तभद्र ने ऐसे लोगों के विषय में कितना अच्छा कहा है
ये परस्खलितोन्निद्राः स्वदोषेभनिमोलिनः । तपस्विनस्ते किं कुर्यु रपात्रं त्वन्मतश्रियः ' ॥
अर्थात् जो दूसरों के छोटे छोटे से दोष ढूंढने में सदा जागृत रहते हैं और अपने हाथी जैसे बड़े बड़े दोषों के प्रति नेत्र बन्द कर लेते हैं वे मोक्ष-मार्ग में क्या कर सकते हैं ? हे भगवन् ! वे आपके मत-धर्मवी
२. स्वयंस्तोत्रे ।
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