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-१. १०] दर्शनप्रामृतम् १९ भग्नाश्चारित्रात् पतिता भ्रष्टा अन्येषामपि प्रष्टत्वमारोपयन्ति, ते निन्दनीया इत्यर्थः ॥९॥
जह मूलम्मि विणढे दुमस्त परिवार पत्थि परिवड्ढी । तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिझति ॥१०॥ यथा मूलं विनष्टे द्रुमस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धिः। तथा जिनदर्शनभ्रष्टा मूलविनष्टा न सिध्यन्ति ॥१०॥ (जह मूलम्मि विण? दुमस्त परिवार गत्यि परिवड्ढी ) यथा मूले 'पाताले गांधारे विनष्टे विनाशं प्राप्ते द्रुमस्य वृक्षस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धिः शाखापत्र-पुष्प-फलादेवृदिनास्ति वृद्धिनं भवति । परिवार इत्यत्र षष्ठीलुक् “लुक्वेति" वचनात् । दृष्टान्तं दत्वा दाष्टन्तिं ददाति । (तह जिणदसणभट्ठा) तथा तेन
ममूलप्रकारेण जिनदर्शनभ्रष्टा आर्हतमतात्पतिताः । (मूलविणट्ठा) श्रीमूलसङ्घात् प्रच्युताः । ( न सिमति ) न सिंखपन्ति न मोक्षं प्राप्नुवन्ति-चन्मशतसहस्रष्वपि संसारे परिप्रमन्तीति भावार्थः ॥१०॥
लक्ष्मी के अपात्र हैं। जैनधर्म का अंश भी उनकी आत्मा में जागृत नहीं हना है ||९|| ' गावा-जिस प्रकार जड़ के नष्ट हो जाने पर वृक्ष के परिवार की वृद्धि नहीं होती [उसी प्रकार सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर चारित्ररूपी वृक्ष की वृद्धि नहीं होती] | जो मनुष्य जिनदर्शन--अर्हन्त भगवान् के मत से भ्रष्ट हैं वे मलविनष्ट हैं अर्थात् जड़ रहित हैं--सम्यग्दर्शन से शून्य हैं और ऐसे लोग मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते ॥१०॥ . विशेषार्थ-पाताल-बहुत गहराई तक नीचे फैली हुई जड़ ही वृक्ष को वृद्धि का कारण है। उसके नष्ट हो जाने पर जिस प्रकार वृक्ष में न नई नई शाखाएं निकलती हैं; न पत्ते, फूल, फल आदि की वृद्धि होती है उसी प्रकार जिनदर्शन-जिनमत अथवा जिनेन्द्र देव की गाढ श्रद्धा ही धर्म को जड़ है। जो मनुष्य इससे भ्रष्ट हैं-पतित हैं वे मूल से नष्ट ई-जड़ रहित हैं । ऐसे जीव सिद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकतेलाखों जन्मों तक संसार में हो भ्रमण करते रहते हैं। संस्कृत टीकाकार ने मूल का अर्थ मूलसंघ करते हुए लिखा है कि जो मूलसंघ से च्युत हैं अर्थात् मूलसंघ को आम्नाय से भ्रष्ट होकर नये नये पन्य चलाते हैं वे मोक्ष को प्राप्त नहीं होते, इसी संसार में लाखों जन्मों तक भटकते
रहते ॥१०॥ .१. पातालगताबारे
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