________________
-४. ३७ ]
बोधप्राभृतम्
१९९
अयोगकेवल्यप्यर्हन् भवतीति भावः । ( एदे गुणागणजुत्तो ) एतद्गुणगणयुक्तः । ( गुणामारूढो हवइ अरहो ) गुणस्थानमारुढोऽर्हन् भवति गुणस्थानात्परतः सिद्ध उच्यते इति भावः ॥ ३६ ॥
आगे द्रव्य की अपेक्षा अरहन्त का वर्णन करते हैं
जरवाहिदुक्खरहियं आहारणिहारवज्जियं विमलं । सिंहाण खेल सेओ णत्थि दुगंछा य दोसो य ॥३७॥ जराव्याधिदुःख रहितः आहारनोहारवर्जितो विमलः । सिंहाण: खेल: स्वेदो नास्ति दुर्गन्धश्च दोषश्च ॥ ३७॥
( जर वाहिदुक्ख र हियं ) जरारहितो व्याधिरहितः शारीरमानसागन्तुदु.खरहितोऽर्हन् भवति । प्राकृते लिङ्गभेदत्वात् जरवाहिदुक्खर हियं इति नपुंसकलिङ्ग
अयोग-केवली भी अरहन्त होते हैं। इन सब गुणों के समूह से युक्त मनुष्य यदि गुणस्थान में आरूढ है अर्थात् तेरहवें चौदहवें गुणस्थान में विद्यमान है तो अरहन्त होता है और यदि गुणस्थानोंसे परे हो गया है तो सिद्ध कहलाने लगता है ।
[ श्री पं० जयचन्द्र छावड़ा ने इस गाथाका अर्थ यों किया है— अर्थ – 'मनुष्य भव विषै पञ्चेन्द्रिय नामा चौदमां जीवस्थान कहिये जीवसमास ता विषै इतने गुणनि के समूह करि युक्त तेरहमें गुणस्थान कू प्राप्त अरहंत होय है ।
भावार्थ - जीव समास चौदह कहे हैं एकेन्द्रिय सूक्ष्म, वादर, २ बे इन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय ऐसे विकलत्रय ३, पञ्चेन्द्रिय असैनी, सैनी २ ऐसें सात भये ते पर्याप्त अपर्याप्त करि चौदह भये तिनि में चौदहमां सैनी पञ्चेन्द्रिय जीवस्थान अरहन्त के है । गाथा में सैनो का नाम न लिया अर मनुष्य भवका नाम लिया सो मनुष्य सेनी ही होय है, असैनी न होय तातें मनुष्य कहने तैं सैनी ही जानना ||३६|| ]
गाथार्थ - अरहन्त भगवान बुढापा व्याधि और दुःख से रहित हैं, आहार और नीहारसे रहित हैं, मल-रहित हैं । अरहन्त भगवान में नाक का मल, थूक, पसीना, ग्लानि उत्पन्न करने वाली घृणित वस्तु तथा वात वित्त कफ आदि दोष नहीं हैं ||३७||
विशेषार्थ – अरहन्त भगवान बुढापा से रहित हैं, श्वास कास आदि बीमारियों से रहित हैं, शारीरिक मानसिक और आगन्तुक दुःखों से
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org