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भावप्राभृतम्
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उत्कण्ठितौ । गोमुखीनामोपवासमिषेणा । सीरिणा सह महत्या विभूत्या गोदावनं गोष्ठं परिवारेण सह गतौ । तस्मिन्नेव दर्पवद्वृषभेन्द्रग्रीवाभंगावसरे कृष्णं महाबलं समालम्ब्य स्थितं दृष्ट्वा 'गन्धमाल्यादिसन्मानानन्तरं भूषयामासतुः तदनन्तरं प्रदक्षिणं कुर्वत्या देवक्याः शातकुंभकुंभसदृशयोः स्तनयोः क्षीरं सुस्राव कृष्णस्याभिषेकं कुर्वत्या इव । बलस्तद्वीक्ष्य मंत्रभेदभयादुपवासपरिश्रान्ता माता मूर्च्छितेति • जल्पन् सुधीः कु भपूर्णपयोभिस्तां समन्ततोऽभ्युक्षितवान् । ततो गोष्ठवृक्षादीनामपि तद्योग्यं पूजनं कृत्वा गोपालकुमारैः सह कृष्णं भोजयित्वा स्वयं च भुक्त्वा माता पिता च विकुर्वाणो पुरं प्रविविशतुः । कदाचिन्महावषंपाते जाते गोवर्धनाख्यं - पर्वतमुद्धृत्य हरिगंवामावरणं चकार । तेन ज्योत्स्नेव तत्कीतिरखिलं जगत् व्याप्नोति स्म शत्रुमुखकमलसंकोचकारिणी । तन्नगरस्थापनाहेतुभूतजिनालयसमीपे
लगा मानों वह कृष्णा अभिषेक ही कर रही हो । यह देख बुद्धिमान बलदेव ने मन्त्र भेदके भय से 'उपवास के कारण थक कर माता मूच्छित हुआ चाहती है' यह कहते हुए घड़े भर दूध से उसका अभिषेक कर दिया अर्थात् उस पर घड़ा भर दूध उड़ेल दिया । तदनन्तर गोकुल के वृक्ष आदि का भी यथायोग्य पूजन कर माता-पिता ने गोपाल कुमारों के साथ कृष्ण को भोजन कराया और स्वयं भी भोजन कर हर्षित होते हुए नगर में प्रवेश किया।
• किसी समय जोर की वर्षा हुई, उस समय श्री कृष्णने गोवर्धन नामक पर्वत को उठा कर गायोंको छाया की । इस घटना से शत्रु के मुख कमल को संकुचित करने वाली चांदनी के समान उनकी कीर्ति समस्त जगत् में फैल गई। उस नगर की स्थापना के हेतुभूत जिनालय के समीप पूर्व दिशा में एक देवता के गृह में श्रीकृष्ण के पुण्यातिशयसे नागशय्या, धनुष और शङ्ख ये तीन रत्न प्रकट हो गये, जो कि देवताओं के द्वारा रक्षित थे तथा नारायण की होनहार लक्ष्मी को सूचित करने वाले थे । उन्हें देख कसने भयभीत हो वरुणसे पूछा कि इनकी उत्पत्तिका क्या फल है ? वरुण ने कहा- हे राजन् ! इन तीन रत्नों को शास्त्रोक्त विधिसे जो सिद्ध कर लेता है वह चक्रवर्ती होगा। यह सुन कंस स्वयं ही उन तीनों रत्नों को
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१. सन्मानानन्तर क० ।
२. वृषा० खु ।
३. हर्षमाणी ।
४. प्रतिशशतुः क० । प्रविशतुः खु ।
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