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षट्प्राभृते
[५.४६पूर्वदिशि देवतागृहे हरिपुण्यातिरेकात् नागशय्या धनुः शंखश्च त्रीणि रलानि देवतारक्षितानि नारायणस्य भविष्यल्लक्ष्मीसूचकानि समुत्पन्नानि । तानि दृष्ट्वा कंसो वरुणं सभयः पप्रच्छ-एतेषां प्रादुर्भूतः किं फलमिति । स प्राह है राजन् ! एतानि त्रीणि रत्नानि शास्त्रोक्त वधिना यः साधयति स चक्रवर्ती भविज्वतीति । तत्श्रुत्वा कंसः स्वयं तत्त्रितयं साधयितुमिच्छुरपि साधयितुमशक्तो मनाक् खिन्नः साधनाद्विरराम । उक्तवांश्च यो नागशय्यामारुह्य केन हस्तेन शंख पूरयति द्वितीयेन करेण धनुरारोपयति युगपत्कार्यत्रयं करोति तस्मै निर्जपुत्रीं दास्यामीति स्वशत्रु परिज्ञातु साशंकः पुरे घोषणामचीकरत् । तद्वार्ता श्रुत्वा सर्वे राजान आगताः । राजगृहात् कंसश्यालकः स्वर्भानुनामा भानुनामानं स्वपुत्रं भानुसदृशमादायाजगाम । निवेशं चिकीर्षुगोंदावनसमीपे महासपनिवाससरोवरतटे
सिद्ध करने की इच्छा करने लगा परन्तु सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सका, अतः कुछ खेदखिन्न हो चुप हो रहा । उसने कहा कि जो नागशय्या पर चढ़कर एक हाथ से शङ्ख को पूरेगा और दूसरे हाथ से धनुष को चढ़ावेगा अर्थात् तीनों काम एक साथ करेगा उसके लिये मैं अपनी पुत्री ,गा। इस प्रकार आशङ्का से युक्त कंस ने अपने शत्रु का पता चलाने के लिये नगर में घोषणा कराई। इस बात को सुनकर सब राजा वहां आ पहुंचे। राजगृह से कंस का साला स्वर्भानु, सूर्य के समान अपने भानु नामक पुत्रको लेकर आ गया। आते समय वह गोदावन (गोकुल ) के समीप महासर्प निवास (जिसमें बड़े बड़े सांपों का निवास - था) सरोवर के तट पर अपना पड़ाव डालना चाहता था। उसने गोपाल कुमारों से सुना कि कृष्ण के बिना और कोई इस सरोवर से जल नहीं ला सकतो अतः उसने श्रीकृष्ण को बुलवाकर यथास्थान पर अपना पड़ाव डाला। कृष्ण ने कहा-राजन् ! आप कहां जा रहे हैं ? उत्तर में स्वर्भानुने श्रीकृष्णको अपना मथुरा जाने का प्रयोजन बतलाया। कृष्ण ने फिर कहा-राजन् ! यह कार्य क्या हमारे-जैसे लोगोंके द्वारा भी किया जा सकता है ? यह सुनकर स्वर्भानु विचार करने लगा कि यह केवल बालक ही नहीं है, सातिशय पुण्यात्मा भी है। कृष्ण से उसने कहा कि यदि तुम उस कार्य के करने में समर्थ हो तो आओ। इस प्रकार सुभानु जिसका दूसरा नाम था ऐसा स्वर्भानु कृष्ण को अपने पुत्र के समान साथ लेकर मथुरा पहुंचा। वहां जाकर उसने कंस के यथा योग्य दर्शन किये। उस कार्य के करने में जिसका मान खण्डित हो चुका था ऐसे बहुत से
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