________________
-४. २१ ]
बोधप्राभृतम्
१७१
भूतेन लभते । किं कर्मतापन्नं ? लक्ष्यं निजात्म स्वरूपम् । ( तम्हा णाणं च णायव्वं ) तस्मात्कारणाज्ज्ञानं च ज्ञातव्यं, न केवलमायतनादि'-षट्कं ज्ञातव्यं किन्तु ज्ञानं च ज्ञातव्यं । च शब्दः परस्परसमुच्चयार्थः ।।। जह णवि लहदि हु लक्खं रहिओ कंडस्स वेज्जयविहीणो। तह गवि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स ॥२१॥ यथा नापि लक्षयति स्फुट लक्ष्यं रहितः काण्डस्य वेध्यकविहीन । तथा नापि लक्षति लक्ष्यं अज्ञानी मोक्षमार्गस्य ||२१||
(जह ण वि लहदि हु लक्खं ) यथा येन प्रकारेण नापि नैव लभते, हु-स्फुटं, लक्ष्यं वेध्यं । कोऽसो वेध्यं न लभते ? ( रहिओ कंडस्स वेज्जयविहीणो) रहितोऽभ्यासरहितः, काण्डस्स वाणस्य, वेध्यकविहोनोऽनभ्यस्तवेध्यव्यधनः पुमान् । ( तह ण वि लक्खदि लक्खं ) तथा तेन प्रकारेण नापि लक्षयति जानाति लक्ष्यं परमात्मानं । ( अण्णाणो मोक्खमग्गस ) अज्ञानी ज्ञानरहितः पुमान् मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणस्य लक्ष्यं निजात्मस्वरूपं न लक्षयति ॥ २१ ॥
ज्ञानके द्वारा प्राप्त करता है इसलिये ज्ञानको जानना चाहये। साधुके मात्र आय-न आदि छह पदार्थों को हो नहीं जानना चाहिये किन्तु ज्ञानको भी जानना चाहिये। च शब्द परस्पर समुच्चय करने वाला है ॥२०॥
गाथार्थ-जिस प्रकार निशाना वेधने के अभ्यास से रहित पुरुष वाण के लक्ष्य निशानाको नहीं प्राप्त करता है उसी प्रकार . अज्ञानी पुरुष मोक्षमार्गके लक्ष्य निजात्म-स्वरूप को नहीं प्राप्त करता है ॥२१॥
विशेषार्थ-निशाना वेधने के अभ्यास से रहित पुरुष जिस प्रकार वाणके निशाना को नहीं प्राप्त कर पाता है, उसी प्रकार अज्ञानी-आत्मस्वरूप के चिन्तनके अभ्यास से रहित पुरुष मोक्षमार्ग के लक्ष्य-निज आत्मस्वरूप को नहीं प्राप्त कर सकता है। मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप है ॥ २१ ॥
१. आयतनाभिषटकं क० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org