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________________ १७० षट्प्राभूते [ ४. २० शिरः - कूचंश्मश्रुलाचा मयूरपिच्छघरः कमण्डलुकरोऽधः केशरक्षणं इति जिनमुद्रा सामान्यते । तदुक्तमिन्द्रनन्दिना प्रतिष्ठाचार्येण मुद्रा सर्वत्र मान्या स्यान्निर्मुद्रो नैव मान्यते । राजमुद्राघरो ऽत्यन्तहीन वच्छास्त्रनिर्णयः जिणमुद्दा - इति श्री बोधप्राभृते जिनमुद्राधिकारः षष्ठः समाप्तः । . अथेदानीं ज्ञानाधिकारः प्रारभ्यते संजमसंजुत्तस्स य सुझाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स । गाणेण लहदि लक्खं तम्हा जाणं च णायव्वं ॥ २० ॥ संयमसंयुक्तम्य च सुध्यानयोगस्य मोक्षमार्गस्य । ज्ञानेन लभते लक्ष्यं तस्मात् ज्ञानं च ज्ञातव्यम् ॥२०॥ ( संजम संजुत्तस्स य ) संयमेनेन्द्रियजयप्राणरक्षणलक्षणेन संयुक्तस्य सहितस्य । ( सुझाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स ) सुष्ठु -ध्यान-योगस्य आर्त- रौद्र ध्यानद्वय रहितस्य ध्यानस्य धर्म्यध्यानशुक्लध्यान द्वयस्य योगेन संयोगेन सहितस्य, एवं विशेषणद्वयविशिष्टस्य मोक्षमार्गस्य सम्बन्धित्वेन । ( णाणेण लहदि लक्खं ) ज्ञानेन करण ॥ १ ॥ www इसका सम्मान किया जाता है । जैसा कि इन्द्रनन्दी प्रतिष्ठाचार्य ने कहा है मुद्रा - सब जगह मुद्रा माननीय होती है, मुद्रा-रहितका सन्मान नहीं होता । जिस प्रकार राजमुद्रा को धारण करने वाला अत्यन्त हीन मनुष्य भी मान्य होता है । शास्त्रका यही निर्णय है ||१९|| इस प्रकार श्री बोधप्राभृत में जिनमुद्राधिकार नामका छठवाँ अधि-कार समाप्त हुआ । Jain Education International अब आगे ज्ञानाधिकार प्रारम्भ किया जाता है । गाथार्थ - संयमसे सहित और उत्तमध्यान के योग से युक्त मोक्षमार्गका लक्ष्य ज्ञान से ही प्राप्त होता है, अतः ज्ञानको जानना चाहिये ॥ २० ॥ विशेषार्थ - जो मोक्षमार्ग इन्द्रिय-संयम तथा प्राणिसंयम से युक्त है। एवं आर्तरौद्र रूप खोटे ध्यानों से रहित होकर धयं और शुक्ल नामक उत्तम ध्यानोंसे सहित है, उसके लक्ष्य निजात्म-स्वरूपको यह जव For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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