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________________ —४. १९ ] बोधप्राभृतम् दृढसंयममुद्रय इन्द्रियमुद्रा कषायदृढमुद्रा । मुद्रा इह ज्ञानेन जिनमुद्रा ईदृशी भणिता ॥ १९ ॥ ( दढ संजममुद्दाए) दृढया वच्चघटितप्रायया संयममुद्रया षड्जीवनिकाय - रक्षण - लक्षणया षड़िन्द्रियसंकोचस्वरूपया च मुद्रया वेषेण जिनमुद्रा भवति । ( इंदियमुद्दा कषायदढमुद्दा ) इन्द्रियाणां स्पर्शन - रसन-प्राण-चक्षुः श्रोत्राणां द्रव्ये - न्द्रियाणां यत्र मुद्रणं कूर्मवत्करण' - संकोचनमिन्द्रियमुद्रोच्यते सा जिनमुद्रा भवति । ( कसायदढ मुद्दा ) कषायाणां दृढं गाढं मुद्रणां कषायदृढमुद्रा । ( मुद्दा इइ णाणाए ) मुद्रा इह जिनशासने ज्ञानेन भवति, अर्हनशं पठनपाठनादिना जिनमुद्रा भवति । ( जिणमुद्दा एरिसा भणिया ) जिनमुद्रेदृशी भणिता । मुनीनामाकारो जिनमुद्रा । ब्रह्मचारिणामाकारश्चक्रवर्तिमुद्रा ते उभये अपि माननीये । यदि कश्चिद्दुरभि - निवेशेन तां न मानयति स पुमान् जिनमुद्राद्रोहो विशिष्टे दण्डनीय इति भावार्थः । १६९ मुद्रण - संकोच है, जिसमें कषायोंका दृढ़ मुद्रण- नियन्त्रण है और जो सम्यग्ज्ञानसे सहित है, ऐसो मुनिमुद्रा ही जिनमुद्रा है । जिन शासन में यहो जिनमुद्रा कही गई है। विशेषार्थ - छहकार्य के जीवोंकी रक्षा करना तथा छह इन्द्रियों को संकुचित करना संयम मुद्रा है । जिसमें यह संयममुद्रा वज्र से निर्मित के समान अत्यन्त दृढ होती है वह मुनि-मुद्रा जिन-मुद्रा कहलाती है । जिस मुनिमुद्रा में स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु और श्रोत्र इन द्रव्येन्द्रियोंका कछुए के समान संकोच किया जाता है तथा क्रोधादि कषायोंका अच्छी तरह नियन्त्रण होता है वह जिनमुद्रा कहलाती है। जिस मुनिमुद्रा में रात दिन पठन पाठन आदि के द्वारा ज्ञान का प्रचार होता है वह जिनमुद्रा है। जिनशासन में जिनमुद्रा ऐसी कही गई है। मुनियों के आकारको जिनमुद्रा और ब्रह्मचरियों के आकारको चक्रवर्ति मुद्रा कहते हैं । ये दोनों ही मुद्राएं माननीय हैं - पदके अनुकूल आदर के योग्य हैं। यदि कोई दुष्ट अभिप्राय उस जिनमुद्राका सन्मान नहीं करता है तो वह जिनमुद्राका द्रोही है तथा विशिष्ट जनों के द्वारा दण्डनीय है । शिर दाढ़ी और T मूछ के केशोंका लोंच करना, मयूर-पिच्छ धारण करना, कमण्डलु हाथ में रखना और नीचे के बाल रखना यह जिनमुद्रा मुनि-मुद्रा है । Jain Education International १. करचरणसंकोचनं म०, ङ० प्रती 'कूर्मवत्करणं संकोचनमिन्द्रियमुद्रोच्यते सा जिनमुद्रा भवति इति पाठो नास्ति' । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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