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षट्प्राभृते
[४. १९
(तप वयगुणेहिं सुद्धो ) तपोभिर्वादशभेदः, व्रतरहिंसासत्यास्तेयब्रह्मापरिग्रहैः पञ्चभिः गुणैः पूर्वोक्तलक्षणैश्चतुरशीतिलक्षः शुद्धो निष्कलङ्कः। ( जाणदि पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं) जानाति सम्यग्ज्ञानवान पश्यति स्वरूपं वेत्ति, कस्य ? शुद्धसम्यक्त्वस्य पञ्चविंशतिमलरहितस्य ( अरहंतमुद्द ऐसा ) श्रीमद्भगवर्हत्सर्वशवीतरागस्य मुद्रा आकार एषा धर्माचार्यलक्षणा पाषाणघटित-विम्बस्वरूपा यन्त्रमन्त्राराधनगम्या च जिनविम्बं भवति । ( दायारी दिक्खसिक्खा य) कथंभूता मुद्रा ? दात्री दायिका, कासाम् ? दीक्षाशिक्षाणाम् । चकाराद्यात्राप्रतिष्ठादि- . कर्मणां च प्रवर्तिका।
जिणविवं-इति श्री बोधप्राभृतेः जिनबिंवाधिकारः पंचमः समाप्तः ।।५।। अथेदानीमेकया गाथया जिनमुद्रां निरूपयन्ति श्रीमदेलाचार्यः- .. दढसंजममुद्दाए इदियमुद्दा कसायदढमुद्दा।। मुद्दा इह णाणाए जिणमुद्दा एरिसा भणिया ॥१९॥
हैं, तथा शुद्ध सम्यक्त्व के स्वरूप को देखते हैं ऐसे आचार्य ही अरहन्त मुद्रा है-जिनविम्ब है । यह अरहन्त मुद्रा दीक्षा और शिक्षा को देनेवाली है ॥१८॥
विशेषार्थ-तपके अनशन आदि बारह भेद हैं, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के भेदसे व्रतके पांच भेद हैं तथा गुणोंके चौरासीलाख भेद पहले कहे जा चुके हैं जो इन तप आदिसे शुद्ध हैंनिष्कलङ्क हैं-जिनके तप आदिमें कभी दोष नहीं लगते, जो वस्तु-स्वरूपको जानते हैं-सम्यग्ज्ञान से युक्त हैं, तथा जो पच्चीस मल से रहित सम्यक्त्व के स्वरूप को देखते हैं-जानते हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी अरहन्त मुद्रा हैं, सर्वज्ञ वीतराग अर्हन्त भगवान की मुद्रा-आकृति को धारण करने वाले हैं। इनके सिवाय यन्त्र और मन्त्र से जिनकी आराधना होती है ऐसी पाषाण निर्मित प्रतिमाएं भी जिनविम्ब कहलाती हैं। यह अरहन्त मुद्रा दीक्षा और शिक्षा को देनेवाली है और चकार से यात्रा तथा प्रतिष्ठा आदि कार्योंको प्रवर्ताने वाली है ॥१८॥
इसप्रकार बोधप्रामृत में जिनविम्ब नामका पांचवा अधिकार समाप्त हुमा ॥५॥
गावार्थ-जो संयम की दृढमुद्रा से सहित है, जिसमें इन्द्रियोंका
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