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-४. १८ ]
बोधप्राभृतम्
'अपूजयित्वा यो देवान् मुनीननुपचर्य च । यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् स भुञ्जीत परं तमः ।। १ ।।
परं तम इति कोऽर्थः ? कुम्भीपाकनरकः, सप्तमे नरके पञ्च विलाति तेषां नामानि यथा - रौरवमहारौरवासिपत्रकूटशाल्मलो कुम्भीपाका इति सप्तमे नरके यानि चतुर्दिक्षु चत्वारि विलानि वर्तन्ते तान्यर्धं रज्जुप्रमाणानि सन्ति, तेषां मध्ये यत्कुम्भीपाकसंज्ञकं पञ्चमं विलमस्ति तदेकयोजन-लक्ष-प्रमाणं वर्तते पञ्चभिरपिरज्जुरेका भूमी रुद्धा वर्तते । ( जस्स य दंसण णाणं ) यस्य पूर्वोक्तलक्षणस्य जिन विम्बस्य दर्शनं ज्ञान च वर्तते । ( अस्थिधुवं चेयणाभावों ) अस्ति विद्यते ध्रुवं निश्चयेन चेतनाभाव आत्मस्वरूपं स्थापनान्यासेनापीति तात्पर्यम् ।
तववयगुणेह सुद्धो जाणदि पिच्छे सुद्धसम्मत्तं । अरहंतमुद्द ऐसा दायारी दिक्खसिक्खा य ॥ १८ ॥ तपोव्रतगुणैः शुद्धः जानाति पश्यति शुद्ध सम्यक्त्वम् । अर्हन्मुद्रा एषा दात्रो दीक्षा शिक्षाणां च ॥ १८ ॥
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अपूजयित्वा - जो मनुष्य गृहस्थ होता हुआ भी देवों की पूजा और मुनियों को परिचर्या किये विना भोजन करता है वह परम तम को प्राप्त होता है ।
प्रश्न - परम तम, इसका क्या अर्थ है ? उत्तर -- कुम्भीपाक नरक ।
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सातवें नरक के पाँच बिल हैं उनके नाम इस प्रकार हैं १ रौरव २ महारौरव ३ असिपत्र ४ कूट शाल्मली और ५ कुम्भीपाक । सातवें नरक की चारों दिशाओं में जो चार बिल हैं वे आधी रज्जु प्रमाण हैं और उन चारों बिलोंके बीच में जो कुम्भीपाक नामका पाँचवाँ बिल है वह एक लाख योजन प्रमाण है । इन पाँचों बिलों के द्वारा एक राज प्रमाण भूमि रुकी हुई है । जिसका लक्षण पहले कहा जा चुका है ऐसे जिन - विम्ब रूप आचार्य परमेष्ठी के दर्शन तथा ज्ञान विद्यमान रहता है और निश्चय से चेतना भाव अर्थात् आत्मस्वरूपकी उपलब्धि रहती है । पाषाण आदि से निर्मित जिनविम्बमें चेतनाभाव स्थापना- निक्षेप से होता है ॥ १७ ॥
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गाथार्थ - जो तप व्रत और गुण से शुद्ध हैं, वस्तु स्वरूप को जानते
१. यशस्तिलके ।
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