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________________ षट्प्राभृते [५.९१__ (पाऊण गाणसलिलं ) प्राप्य लब्ध्वा किं ? ज्ञानसलिलं सम्यग्ज्ञानपानीयं सिद्धा भवन्तीति सम्बन्धः कथंभूताः सिद्धाः ( निम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का ) निर्मथ्या मयितुमशक्या स चासो तृषा विषयाभिलाषः दाहश्च शरीरपरिसन्तापः शोषश्च रसादिहानिः निर्मथतृषादाहशोषाः तैरुन्मुक्ताः परित्यक्ता निर्मथतृड्दाहशोषोन्मुक्ताः निम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता इति च क्वचित्पाठः तत्रायमर्थःनिर्मलो द्रव्यकर्मभावकमनोकर्मरहितः योऽसौ सुविशुद्धभावः कर्ममलकलङ्करहितः क्षायिको भावः परिणामः निष्केवल आत्मा वा तेन संयुक्ताः सहिता निर्मलसुविशुद्धभावसंयुक्ताः । (होति सिवालयवासी) भवन्ति संजायन्ते, के ते ? आसन्नभव्यजीवाः, कीदृशाः संजायते ? शिवालयवासिन इषत्प्राग्भारनाम्न्यां शिलायां वसन्तीति मुक्तिशिलोपरितिष्ठन्तीत्येवं शीलाः शिवालयवासिनः, अथवा शिवानां सिद्धानामालयः शिवालयः पंचचत्वारिंशल्लक्षयोजनविस्तारमुक्तिशिलायाउपरि तनु विशेषार्य-श्रुत ज्ञान की भावना का फल बतलाते हुए श्री कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि ये जीव ज्ञान रूपी जलको पाकर सिद्ध होते हैं सिद्ध होनेके पूर्व ये जीव जिसका नष्ट करना 'अशक्य है ऐसो तृषा अर्थात् विषयोंकी अभिलाषा, दाह अर्थात् शारीरिक संताप और शोष अर्थात् रसादि हानि से उन्मुक्त हो जाते हैं-छूट जाते हैं। अथवा कहीं पर "जिम्मह तिसडाह सोस उम्मक्का' इस पाठके स्थान पर निम्मल सुवि. सुद्ध--भाव संजुत्ता' ऐसा पाठ पाया जाता है उसका अर्थ इस प्रकार होता है कि ये जीव, द्रव्यकर्म, भावकर्म और नो कर्म से रहित सुविशुद्धभाव अर्थात् कम-मल-कलङ्क से रहित मात्र क्षायिक भाव रूप परिणाम से संयुक्त होते हैं। सिद्ध परमेष्ठी शिवालय वासी होते हैं अर्थात् ईषत्प्राग्भार नामक शिला पर जो कि मुक्ति शिला अथवा सिद्धशिला कहलातो है निवास करते हैं। अथवा सिद्धों का जहां निवास है वह शिवालय कहलाता है । सिद्धोंका निवास पैंतालीस लाख योजन विस्तार वालो सिद्ध शिला के ऊपर तनुवात वलय के अन्तिम पांच सौ पच्चीस धनुष १. पाऊण की छाया 'प्राप्य' न होकर पीत्वा ठोक जान पड़ती है और निर्मथ्य का अर्थ 'मथयितुमशक्या के बदले 'निःशेषेण मथित्वा' उचित जान पड़ता है । इस दशा में निर्मथ्य का कर्म तृषा है । सामूहिक रूपसे गाथाका अर्थ यह संगत प्रतीत होता है-'ये जीव ज्ञानरूमो जलको पोकर तथा विषयाभिलाषा रूपी तृषा-प्यास को बिलकुल नष्ट कर दाह और शोष से रहित होते हुए शिवालयवासी एवं तीन लोकके चूडामणि सिर होते है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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