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________________ -५. ९२] भावप्राभृतम् ४५१ वातनामवातवलये निराधारा आकाशे तिष्ठन्तीति भावः । पुनः कथंभूताः सिद्धाः, (तिहुवणचूडामणी ) त्रैलोक्यशिरोरत्नसदृशाः । दस दस दो सुपरीसह सहहि मुणी सयलकाल काएण। सुत्तेण अप्पमत्तो संजमघादं पमोतूण ॥९२॥ . दश दश द्वौ सुपरीषहान् सहस्व मुने ! सकलकालं कायेन । सूत्रेण अप्रमत्ता संयमघातं प्रमुच्य ।।१२।। ( दस दस दो ) दश च पुनर्दश च द्वौ च द्वाविंशतिरित्यर्थः के ते, ( सुपरीसह ) सुष्ठुअतिशयेन परिसमन्तात् सहन्ते ये ते सुपरीषहाः “मार्गाच्यवननिर्जराथं परिसोढव्याः परीषहाः" ते तु पूर्वोक्तवर्णना ज्ञातव्याः । (सहहि) सहस्व । (मुणी) हे मुने ! हंहो तपस्विन् ! ( सयलकाल) सकलकालं सर्वकालं, कायेन शरीरेण वाग्मनश्चात्मनि स्थाप्यते इति भावः । ( सुत्तेण) सूत्रेण जिनवचनेन कृत्वा । किं तज्जिनवचनं ? __ "मार्गाच्यवननिर्जराथं परिसोढव्याः परिषहाः" इति । ( अप्पमत्ता ) अप्रमत्ताः प्रमादरहिताः इत्यर्थः । (संजमघादं पमोत्तूण) संयमस्य घातं प्रमुच्य । . प्रमाण क्षेत्र में है। सिद्ध परमेष्ठो वहीं निराधार आकाश में स्थित रहते हैं । वे सिद्ध परमेष्ठो तीन लोकके ऊपर चूडामणि के समान सुशोभित होते हैं ।। ९१ ॥ गाथार्य-हे मुने ! तू जिनदेव के सूत्रानुसार-जिन-शास्त्र की आज्ञा प्रमाण प्रमाद रहित हो संयम के घातको छोड़कर सदा शरीर से बाईस परीषहों को सहन कर। विशेषार्थ-हे तपस्विन् ! जिनेन्द्र देवने अपने आगम में आज्ञा दो है'मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिसोढव्याः परीषहाः' अर्थात् गृहीत-मार्गसे च्युत न होने तथा कर्मोंकी निर्जरा के लिये परीषह सहन करना चाहिये, सो इस जिनाज्ञा के अनुसार तू सदा प्रमाद रहित होता हुआ संयम में जो बाधा आती है उसका बचाव कर तथा सदा शरीर से क्षुधा तृषा आदि बाईस परीषहों को सहन कर ॥ ९२ ।। १. "सीषूसहोऽऽसोः" इति शाकटायनीयेन "सोढ" इति जैनेन्द्रीयेण पाणिनीयेन .. च सूत्रेण षत्वनिषेधः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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