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षट्प्राभृते ५.-९३ जह पत्थरो ण भिज्जइ परिदिओ दोहकालमुवएण। तह साहू ण विभिज्जइ उवसग्गपरीसहेहिंतो ॥१३॥ यथा प्रस्तरो न भिद्यते परिस्थितो दीर्घकालं उदकेन ।
तथा साधुन विभिद्यते उपसर्गपरीषहेभ्यः ॥१३॥ ( जह पत्थरो ण भिज्जइ ) यथा प्रस्तरः पाषाणो न विभिद्यते न परिणमति अन्तरार्दो न भवति । (परिट्ठिओ दीहकालमुदएण ) पाषाणः कथंभूतः, परिस्थितः वडित उदके इति सौत्रसम्वन्धात् । कथं परिस्थितः, दीर्घकाल प्रचुरकालं, केन न विभिद्यते ? उदकेन वारिणा । ( तह साहू ण विभिज्जइ ) तथा साधुर्मुनी रत्नत्रयसाधकः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमण्डितो न विभिद्यते नान्तःक्षुभितो भवति । ( उवसम्गपरीसहेहितो ) देवमानवतिर्यगचेतनोपद्रवेभ्य उपसर्गेभ्यः परोषहेभ्यः क्षुधापिपासादिम्यो द्राविशतेरपि । “सुन्तो हिन्तो हि दु दोत्तो म्यसः" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण पंचमीवहुवचनभ्यसः स्थाने हितो आदेशः । इसिस्थाने च "लुक्च हितो हि दु दो तो उसेः" इति सूत्रेण भवति । "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिनं हि सन्देहादलक्षणं" इति परिभाषयान बहुवचनस्य म्यसों हिन्तो आदेशो सातव्य इति ।
गाचार्य-जिस प्रकार दीर्घकाल तक पानी में डूबा पत्थर पानीके द्वारा भेदको प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार उपसर्ग और परीषहों के द्वारा साधु विभेद को प्राप्त नहीं होता अर्थात् अन्तरङ्ग से क्षुभित नहीं होता ।। ९३ ॥
विशेषार्थ-उपसर्ग उपद्रव को कहते हैं। तथा देवकृत मनुष्यकृत तिर्यकृत और अचेतन कृतके भेदसे चार प्रकार का होता है । क्षुधा आदिको प्राकृतिक बाधाको परोषह कहते हैं तथा उसके क्षुधा तषा शीत उष्ण आदि बाईस भेद हैं। इन उपसर्ग और परीषहों से जैन साधु कभी विचलित नहीं होता, यह दृष्टान्तपूर्वक समझाते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव कहते हैं कि जिस प्रकार दीर्घ काल तक पानीके भीतर रहता हुआ भी पत्थर पानी से भेद को प्राप्त नहीं होता अर्थात् गोला नहीं होता अथवा टूटता नहीं है, उसी प्रकार रत्नत्रयका साधक साधु भो उपसर्ग और परोषहोंसे भेदको प्राप्त नहीं होता अर्थात् क्षुभित होकर संयम से च्युत नहीं होता ॥ ९३ ।।
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