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________________ -५. ९१] भावप्रामृतम् गणघरदेवेगौतमस्वाम्यादिभिन्थितं द्वादशाधिकशतकोटिव्यशीतिलक्षाष्टापंचाशत्सहस्रपचाधिकपदैरानीतमिति ग्रन्थित । चतुर्दशप्रकोणकरप्यानीतं श्रुतज्ञानं । ( सम्म) सम्यक्प्रकारेण पूर्वापरविरोधरहितं । ( भावहि ) भावय । ( अणुदिणु ) अनुदिनमहनिशं । ( अतुलं ) अनुपमं ( विसुद्धभावेण सुयणाणं) चलमलिनपरिणाम. रहिततया । एकस्य पदस्य श्लोका यथा-५१०८८४६२१ अक्षर १६, उक्तं च श्रुतस्कन्धशास्त्रे एक्कावनकोडीओ लक्खा अद्वैव सहसचुलसीदी। सयछक्कं गायब्वं सड्ढाइगवीसपयगंथा ॥१॥ पाऊण गाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का । होति सिवालयवासी तिहूवणचूडामणी सिद्धा ॥११॥ 'प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मथ्यतृषादाहशोषोन्मुक्ताः । भवन्ति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ॥९१॥ - विशेषार्थ-तीर्थकर अर्थात् अष्ट प्रातिहार्य रूप लक्ष्मी से सहित भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ वीतराग देव ने अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा जिसका अर्थ रूपसे निरूपण किया है और गौतम स्वामी आदि गणधर देवोंने जिसकी ग्रन्थ रचना कर एकसौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट ठावन हजार पाँच पदों द्वारा जिसका विस्तार किया है, यही नहीं चौदह प्रकोगंकों के द्वारा भी जिसे सुविस्तृत किया है, ऐसे पूर्वापर विरोध से रहित अनुपम श्रृंत ज्ञान की तू हे जीव ! प्रतिदिन भावना कर । चल, मलिन रूप परिणामों से रहित होकर प्रतिदिन उसीका चिन्तवन कर । द्वादशाङ्ग के एक पद में इक्यावन करोड़ आठ लाख चौरासी हजार छह सौ साढ़े इक्कीस श्लोक बतलाये हैं, १६ अक्षर शेष रहते हैं। जैसा कि श्रुतस्कन्ध शास्त्र में कहा है एक्कावन-इक्यावन करोड़ आठ लाख चौरासी हजार छह सौ साढ़े इक्कीस श्लोक एक पद के बतलाये गये हैं ॥१०॥ - गाथार्य-ज्ञान रूपी जलको प्राप्त कर ये जीव, दुनिवार तृषा दाह और शोषसे रहित हो शिवालय के वासी एवं तीन लोक के चड़ामणि सिद्ध होते हैं । ९१ ॥ १. पीत्वा इति सम्यक् प्रतिभाति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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