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षट्प्राभृते
[५.९०
भक्तजन विनेयमातृपितृसदृशहितोपदेशकानां । ( करेहि भत्ति जिणाणाए ) कुरु त्वं भक्ति पंचामृतजलेक्षुरसहैयंगवीन गोमहिषोक्षीरगन्धोदककलशस्नपनेन जलचन्दनक्षत पुष्पच रुदीपधूपफलार्घदानेन स्तवनेन जपेन ध्यानेन श्रुतदेवताराधनेन नित्यं प्रातरुत्थाय सर्वज्ञवीतरागप्रतिमासर्वाङ्गावलोकनेन भक्ति कुरु, तथा श्रुतभक्ति श्रुतोक्तप्रकारेण कुरु, तथा गुरूणां पादमर्दनेन वैयावृत्त्ययथासंभवाहारदाना तसमर्पणोषघप्रदानवसत्यर्पणाभयदानादिभिर्यथायोग्यं भक्ति कुरु । एतत्सर्वं भक्तिलक्षणं कर्म जिनाज्ञया महापुराणश्रवणेन त्वं कुरु हे जीव ! स्वर्गं मोक्षं च प्राप्स्यसि । कानां महापातकिनां वचनं मा मानयस्व ।
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तित्थयरभासियत्थं गणहरदेवह गंथियं सम्मं । भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्ध भावेण सुयणाणं ॥ ९० ॥ तीर्थंकरभाषितार्थं गणधरदेवः ग्रन्थितं सम्यक् । भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम् ॥९०॥
( तित्थयरभासियत्थं ) तीर्थंकरेण श्रीमद्भगवदहंत्सर्वज्ञवीतरागेण भाषितः कथितोऽर्थो यस्य श्रुतज्ञानस्य तत्तीर्थंकर भाषितार्थं । ( गणहरदेवेहि गंथियं सम्मं )
इसी प्रकार भव्य जीव, भक्तजन तथा शिष्योंको माता पिता के समान हितका उपदेश देनेवाले निर्ग्रन्थ दिगम्बर गुरुओंकी भी भक्ति करना चाहिये | हे जीव ? तू जिनेन्द्र देव की आज्ञानुसार जिन - प्रतिमाओं की पञ्चामृत-जल, इक्षु, रस, घी, गाय भैंसके दूध तथा गन्धोदक से भरें कलशों द्वारा अभिषेकसे जल चन्दन, अक्षत, पुष्प, चरु, दीप, धूप, फल और अर्घं के देनेसे, स्तवन से, जपसे, ध्यान से, श्रुत देवता की आराधना से और नित्य प्रातःकाल उठकर सर्वज्ञ वीतराग की प्रतिमाओं के सर्वाङ्ग दर्शन से भक्ति कर । श्रुत को भक्ति शास्त्र में कही हुई विधि से कर तथा गुरुओं की भक्ति उनके पैर दावना, वैयावृत्य, यथासंभव आहार दान, शास्त्र समर्पण, औषधदान, वसतिकार्पण एवं अभयदान आदि के द्वारा यथा योग्य रीति से कर । यह सब भक्ति रूप कार्यं तू जिनाज्ञासे अर्थात् महापुराण के श्रवण से कर । इस भक्ति के द्वारा तू स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त होगा ॥ ८९ ॥
गाथार्थ - तीर्थंकर भगवान् ने जिसके अर्थका निरूपण किया है तथा गणधर देवोंने जिसे भलीभाँति गूंथा है - द्वादशांङ्ग रूप निबद्ध किया है ऐसे अनुपम श्रुतज्ञान का तू प्रतिदिन विशुद्ध भावसे चिन्तन कर ||१०||
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