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________________ -५. ८९] भावप्राभृतम् ४४७ एकान्तेन क्षणिककान्तेन मोक्षं बौद्धो वदति विपरीतेन हि या मोक्षं बंभब्राह्मणो वदति तापसो विनयेन मोक्षं वदति । इन्द्र-इन्द्रचन्द्रोनागेन्द्रगच्छः संशयेन मोक्षं मन्यते । अपि च शब्दाद्गोपुच्छिको द्राविडो यापनीयाभिधो निष्पिच्छश्च संशयमोक्षो ज्ञातव्यः । मस्करपूरणो माकटिकोऽज्ञानान्मोक्षं मन्यते । एतन्महापातकं मिथ्यात्वपंचकं चयसु त्यज हे जोव ! त्वं । तथा च समन्तभद्रः प्राह 'न सम्यक्त्वसमं किंचित काल्ये त्रिजगत्यपि । - श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ १॥ भावसुद्धीए-तत्वार्थश्रद्धानलक्षणया भावशुद्ध या जिनसम्यक्त्वेन लौंकपापसंभाषणसंगमपरिहारेण शुद्धबुद्धकस्वभावात्मरुचिपरिणामेनेति भावार्थः । ( चेइयपवयणगुरुणं ) चैत्यानां अर्हत्सिद्ध प्रभृतिप्रतिमानां प्रवचनस्य जिननाथसूत्रस्य तथेति मस्तकोपर्यारोपणेन सरस्वतीप्रतिमापूजनेन. गुरूणां निग्रन्थदिगम्बराणां भव्यजीव मिथ्यात्व में तापस, संशय मिथ्यात्व में इन्द्र नामक श्वेताम्बर और अज्ञान मिथ्यात्व में मस्करी प्रसिद्ध हुआ है बौद्ध, सर्वथा क्षणिक एकान्त से मोक्ष कहते हैं । 'हिंसा से मोक्ष होता है' इस प्रकार ब्राह्मण विपरीत मिथ्यात्वका निरूपण करते हैं। 'सब धर्म तथा सब देवों की विनय से मोक्ष होता हैं' ऐसा तापस कहते हैं। इन्द्र-चन्द्र-इन्द्र अर्थात् नागेन्द्र गच्छका प्रवर्तक इन्द्रचन्द्र संशय से मोक्ष मानता है । 'इन्दोविय' यहां जो 'अपिच' शब्द दिया है उससे गोपुच्छिक, द्राविड, यापनीय तथा निष्पिच्छ लोगोंका भी . संशय मिथ्यात्व में समावेश करना चाहिये क्योंकि ये भी संशय से मोक्ष मानते हैं। तथा मार्कटिक अथवा मस्कर पूरण अज्ञान से मोक्ष मानता है। ये पांचों मिथ्यात्व महापाप हैं इसलिये हे जीव ! तू इनका त्याग कर । समन्तभद्र स्वामी ने कहा भी है___ न सम्यक्स्व-तोनों काल और तीनों लोकों में सम्यक्त्व के समान जीवोंका कल्याणकारी और मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी दूसरा कुछ भी नहीं है। . . भाव-शुद्धिका अर्थ तत्त्वार्थश्रद्धान रूप जिन-सम्यक्त्व अथवा शुद्ध बुद्धक-स्वभाव से युक्त आत्मा को रुचि रूप परिणाम समझना चाहिये। चैत्यका अर्थ अहंन्त सिद्ध आदि की प्रतिमा है तथा प्रवचन से जिनागम का ग्रहण होता है। जिन-प्रतिमा और जिनागम को मस्तक पर धारण कर तथा सरस्वती की प्रतिमाको पूजा कर उनकी भक्ति करना चाहिये। १. रत्नकरण्यावकामारे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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