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________________ ६४६ षट्प्राभृते: [ ६. ७१ ( अप्पा झायंताणं ) आत्मानं ध्यायतां मुनीनां । ( दंसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं) दर्शनस्य शुद्धिर्नेमंस्यं चलमलिनत्वरहितसम्यक्त्वानां चमंज लघृततैलभूतनाशनादिपरिहरतां शरीरमात्रदर्शनेन परगृहेषु कृतादिदो परहिताशनमश्नतां दर्शनशुद्धिमतां दृढचारित्राणां ब्रह्मचर्यप्रत्याख्यानादिदृढचारित्राणां । ( होदि ध्रुवं णिव्वाणं ) भवति ध्रुवमिति निश्चयेन निर्वाणं मोक्षो भवति । ( विसऐसु विरत्तचित्ताणं ) विषयेषु इष्टवनितालिङ्गनादिषु विरक्तचित्तानां विषयान् विषं मन्यमानानामिति संक्षेपताऽर्थो ज्ञातव्यो ज्ञानीयो ज्ञेय इति । जेण रागे परे दव्वे ससारस्स हि कारणं । तेणावि जोइणो णिच्चं अप्पे सभावणा ॥ ७१ ॥ येन रागे परे द्रव्ये संसारस्य हि कारणम् । तेनापि योगो नित्यं कुर्य्यादात्मनि स्वभावनाम् ॥ ७१ ॥ कुज्जा ( जेण रागे परे दव्वे ) वनितादिना पर्यायेण, रागे सति राग उत्पद्यते, परकीये द्रव्ये आत्मनो भिन्ने वस्तुनि । ( संसारस्स हि कारणं ) स रागः कथंभूतः, संसारस्य भवभ्रमणस्य, हि निश्चयेन, कारणं हेतुः । ( तेणावि ) न केवलं आत्मनि आत्मभावनां कुर्यात् किन्तु तेनापोष्ट वनितादिना । ( जोइणो ) योगी । ( णिचं ) विशेषार्थ -- जो मुनि आत्मा का ध्यान करते हैं, जिनके सम्यग्दर्शन की निर्मलता है अर्थात् जिनका सम्यक्त्व चलमलिनत्व आदि दोषों से रहित है जो चमड़े के पात्र में रखे हुए जल घी तेल तथा हींग आदिका परित्याग करते हैं, जो शरीर मात्र दिखाकर दूसरों के घरों में कृतादि दोषों से रहित आहार ग्रहण करते हैं, जो ब्रह्मचर्यं तथा प्रत्याख्यान आदि दृढ चारित्र से युक्त हैं तथा इष्ट- स्त्री आदि पञ्चेन्द्रियों के विषयों में विरक्त चित्त हैं अर्थात् विषयोंको विषके समान मानते हैं उन मुनियों को निश्चय से निर्वाण मोक्ष प्राप्त होता है ॥ ७० ॥ गाथार्थ - जिस स्त्री आदि पर्याय से परद्रव्य में राग होनेपर वह राग संसारका कारण होता है योगी उसी पर्यायसे निरन्तर आत्मा में आत्मा भावना करता है ॥ ७१ ॥ विशेषार्थ - साधारण मनुष्य के स्त्री आदि पर्याय के कारण परद्रव्य जो राग भाव होता है वह उसके संसार का कारण बन जाता है परन्तु योगी - वीतरागी मुनिके उसी स्त्री आदि पर पर्याय से निरन्तर आत्मा में आत्म भावना उत्पन्न होती है जो कि मोक्षका कारण बनती है। भावार्थ-साधारण मनुष्य स्त्रीको देखकर उसमें राग करता है जिससे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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