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षट्प्रामृते [५. ११७११८णाणावरणावीहि य अट्ठविकम्मेहि वेढिओ य अहं । उहिऊण इहि पयाडमि अणंतणाणाइगुणचित्तां ॥११७॥ शानावरणादिभिश्च अष्टभिः कर्मभिः वेष्टितश्चाहम् । दाध्वेदानीं प्रकटयामि अनन्तज्ञानादिगुणचेतनां ।।११७॥ . (पाणावरणादीहि य ) मानावरणादिभिश्च ज्ञानावरणमानिर्येषां दर्शनावरण-. वेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाणां तानि ज्ञानावरणादीनि तैनिावरणादिभिः । चकारादुत्तरप्रकृतिभिरष्टचत्वारिंशदधिकशतप्रकृतिभिः । तथा उत्तरोत्तरप्रकृतिभिरसंख्याताभिरह वेष्टित इति सम्बन्धः । ( अट्ठविकम्मेहि वेडिओ य अहं ) अष्टभिरपि कर्मभिर्वेष्टितश्चाहं । अपिशब्दादनन्तानन्तकर्मभिरहं वेष्टितो वर्ते । (उहिऊन इण्हि पयडमि) दग्ध्वा भस्मीकृत्य तानि कर्माणि इत्युपस्कारः। इण्हि इदानीं, प्रकटयामि । ( अणंतणाणाइगुगचिता ) अनन्तज्ञानादिगुणचेतनामिति तात्पर्यम् ।।
सोलसहस्सट्ठारस चउरासीगुणगणाण लक्खाई। भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावेण किं बहुणा ॥११॥
शीलसहस्राष्टादश चतुरशीतिगुणगणानां लक्षाणि ।
भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किं बहुना ॥११८॥ ( सीलसहस्सट्ठारस ) शीलसहस्राष्टादश शीलानां सहस्राणि मष्टादश भवन्ति तानि त्वं भावयेति सम्बन्धः। (चउरासीगुणगणाम लक्खाई) चतुर
गावार्य-सम्यग्ज्ञानी मुनि विचार करता है कि में ज्ञानावरणादि आठ कर्मोसे वेष्टित हो रहा है सो अब इन्हें भस्म कर अनन्त अनादि गुणरूप चेतनाको प्रकट करता हूँ ॥११७॥
विशेषार्य-ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र और अन्तरायके भेदसे कर्मोकी मूल प्रकृतियां आठ हैं। इनकी उत्तर प्रकृतियाँ एकसौ अड़तालीस हैं तथा उत्तर प्रकृतियों को उत्तर प्रकृतियां असंख्यात हैं। इन सब कर्मोंसे में अनादिकाल से वेष्टित चला आ रहा है अब अपने पुरुषार्थ से इन्हें भस्म कर में अनन्त ज्ञानादि गुणों का स्वामी बनूंगा, ऐसा सम्यग्ज्ञानी जीव विचार करता है ।।११७॥
गाचार्य हे मुने! अत्यधिक असत्प्रलाप करने से क्या लाभ है ? तू प्रतिदिन शील के अट्ठारह हजार तथा उत्तरगुणोंके चौरासी लाख भेदोंका बारबार चिन्तवन कर ॥१८॥
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