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भावप्राभृतम्
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शीतिगुणगणानां लक्षाणि । ( भावहि अणुदिणु णिहिलं ) भावय अनुदिनं अर्हनशं समग्र 1 (असप्पलावेण किं बहुणा ) असत्प्रलापेन मिथ्यानर्थकवचनेन बहुना बहुतरेण किं न किमपि ।
अष्टादशशीलसहस्राणां विवरणं यथा - अशुभमनोवचनकाययोगाः शुभेन मनसा हन्यन्ते इति त्रीणि शीलानि । अशुभमनोवचनकाय योगा शुभेन वचसा हन्यन्ते इति षट् शीलानि अशुभमनोवचनकाययोगः शुभेन काययोगेन हन्यन्ते इति नव शोलानि । तानि चतसृभिः संज्ञाभिगुणितानि षत्रिशच्छीलानि भवन्ति । तानि पंचभिरिन्द्रियजयैगुं णितानि अशीत्यग्रशतं भवन्ति । पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिहीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियसंश्यसंशिदयाभिर्दशभिगुणितानि अष्टादशशतानि भवन्ति । उत्तमक्षमादिभिर्दशभिगुणिनानि अष्टादशसहस्राणि भवन्ति । अथवा
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विशेषार्थ - आचार्य कहते हैं कि निरर्थक विस्तारसे लाभ नहीं । तू अट्ठारह हजार शील और चौरासी लाख उत्तरगुणों का चिन्तवन कर । अब शोलके अट्ठारह हजार भेदों का वर्णन करते हैं
मन वचन और कायके भेद से योगके तीन भेद हैं ये तीनों योग शुभअशुभके भेद से दो प्रकारके होते हैं तथा परस्पर में मिश्रित रहते हैं इसलिये इनके नौ भेद हो जाते हैं। जैसे अशुभ मन, वचन, काय योग, शुभ मनसे घाते जाते हैं इसलिये तीन भेद हुए । फिर वे ही तीन अशुभ योग, शुभ वचन से घाते जाते हैं इसलिये तीन भेद हुए और फिर वे ही तीन अशुभ योग, शुभ कायसे घाते जाते हैं इसलिये तीन भेद हुए, सब मिलाकर योग के ९ भेद हुए [ कहीं कहीं कृत कारित अनुमोदना और मन वचन काय इन तीन योगोंके संमिश्रण से शीलके नौ भेद सिद्ध किये
] इन नौ भेदों में चार संज्ञाओंका गुणा करने पर छत्तीस भेद होते हैं। उन छत्तीस भेदों में पाँच इन्द्रिय-जयोंका गुणा करने पर एकसौ अस्सी भेद होते हैं। उनमें पृथिवी कायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायु- कायिक, वनस्पति- कायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सैनी पञ्चेन्द्रिय और असैनी पञ्चेन्द्रिय इन दस प्रकारके जीवोंकी दयाके दस भेदोंका गुणा करने पर अट्ठारहसी भेद होते हैं । उनमें उत्तम क्षमा आदि दस धर्मोका गुणा करने पर अट्ठारह हजार भेद होते हैं ।
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• अथवा इन अट्ठारह हजार भेदोंमें सतरह हजार दो सौ अस्सी चेतन सम्बन्धी और सातसो बीस अचेतन सम्बन्धी भेद हैं । अब अ सम्बन्धी भेदोंका कथन करते है -
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