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-५. ११६] भावप्राभृतम्
४९९ तविवरीओ बंधइ सुहकम्मं भावसुद्धिमावण्णो। दुविहपयारं बंधइ संखेवेणेव 'वज्जरियं ॥११६॥ तद्विपरीतः बध्नाति शुभकर्म भावशुद्धिमापन्नः।
द्विविधप्रचारं बध्नाति संक्षेपेणैव कथितं ॥११६॥ ( तं विवरीओ बंधइ ) तस्माज्जिनवचनपराङ्मुखान्मिथ्यादृष्टिजीवाद्विपरीतः सम्यग्दृष्टिजीवः बध्नाति, किं ? शुभकर्म-पुण्यकर्म सवैद्यशुभायुर्नामगोत्रलक्षणं तीर्थकरत्वं । कथंभूतो जीवः, ( भावसुद्धिमावण्णो ) भावशुद्धिमापन्नः परिणामशुद्धि प्राप्तः सदृष्टिजीव इत्यर्थः ( दुविहपयारं बंधइ) द्विविधप्रचारं द्वयोर्भेदयोः प्रचारं बध्नाति । ( संखेवेणेव वज्जरियं ) संक्षेपेणैव कथितं प्रतिपादितम् ।
गाथार्य-मिथ्यादृष्टिसे विपरीत अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव भावोंकी . शुद्धिको प्राप्त होता हुआ शुभकर्मका बन्ध करता है। इस प्रकार यह जोव शुभ-अशुभ दोनों प्रकारके कर्मोंको बांधता है यह संक्षेप से ही कहा है ।।११६॥
विशेषार्थ-ऊपरकी गाथामें जिन-वचनसे पराङ मुख मिथ्यादृष्टि जीवका कथन किया था, उससे विपरीत जिन-वचनका श्रद्धालु सम्यग्दृष्टि · होता है । सम्यग्दृष्टि जीव भावों की शुद्धिको प्राप्त होता हुआ पुण्य कर्मका बन्ध करता है। सातावेदनीय, शुभायु-शुभनाम और शुभगोत्र तथा तीर्थंकर प्रकृति ये पुण्य कर्म हैं। इस प्रकार पुण्य और पाप कर्मके बन्ध .. करने वालों का संक्षेपसे कथन किया है ॥११६। . (अथवा इस गाथाका यह भाव ध्वनित होता है कि मिथ्यादृष्टि से विपरीत--सम्यग्दृष्टि जीव तो शुभ कर्म-पुण्य कर्मको बांधता है और भावशुद्धि अर्थात् शुद्धोपयोग को प्राप्त हुआ जीव पुण्य और पाप दोनों प्रकारके कर्मोके प्रचारको अर्थात् आस्रव को रोकता है। अशुभोपयोगका धारक जीव, अशुभ कर्मका बन्ध करता है, शुभोपयोगका धारक जीव पुण्य कर्मका बन्ध करता है और शुद्धोपयोगका धारक जीव दोनों प्रकारके कर्मोके प्रचार को रोकता है । यद्यपि ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक सातावेदनीय का बन्ध होता है तथापि स्थिति और अनुभाग बन्धसे रहित होनेके कारण वह बन्ध नहीं के बराबर ही है।)
१. "कथेबज्जर-पज्जर-सग्ध-सास-साह-चव-जप्प-पिसुण-बोलोज्वालाः ।" इत्यनेन । एतेषु पशादेश कषयतेर्वज्जरादेशो प्रातः ।
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