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मोक्षप्राभृतम्
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नायं खलो हन्यते यावन्न हन्तीति । लोकं चिन्ताकुलं दृष्ट्वा मात्रा गिरिकर्णिकानाम्या निजसुतोमा भेदं पृष्टापुत्रि उमे ! मम जामातुविद्याः कदाचिदपि अवशा भवन्ति न वेति, उमा प्राह-मातगिरिकणके ! यदायं मया सह सुरतसुखमनुभवति तदा सुरतकाले विद्या अस्य न स्फुरन्ति । इत्युपदेशं लब्धा । गन्धारदेशे दुरंडनगरे वनप्रदेशे सुरतमारुढः, तैविद्याधरैः कान्तासहितस्य शिरश्चिच्छिदे । तस्मिन् हते तद्विद्याभिर्देश उपद्रुयोद्वासितः । गृहे गृहे कृतचौरः प्रविष्टः जीवधनं मुष्णाति । तन्नगरस्य राज्ञा विश्वसेनेन नन्दिषेणो मुनिः पृष्टः । भगवन् ! "मारिकोपसर्गस्य कः प्रत्ययः । मुनिरुवाच । रुद्रनामा विद्याधरस्तव नगरे विद्यानामक्षमापणं कुर्वाणो मारितस्तेनोपसर्गो वर्तते । तहि स्वामिन् ! उपसर्गविनाशः कथं भविष्यति ? तल्लिगं छित्वा उमोपस्थे स्थापयित्वा यदि पूजयन्ति भवंतस्तदा विद्या उपशाम्यन्ति । उत्पात उपशाम्यतीति तदृश्रुत्वा विश्वसेनस्तत्र गत्वा
लोगों को चिन्ताकुल देख माता गिरिकर्णिका ने अपनी पुत्री उमा से पूछा कि बेटी उमे ! हमारे जामाता की विद्याएँ कभी अनाधीन होती हैं या नहीं ? उमा ने कहा- माता गिरिकण के ! जब यह हमारे साथ संभोग सुखका अनुभव करता है तब संभोग काल में इसे विद्याएँ स्फुरित नहीं रहतीं । गिरिकणिका माता इस उपदेश को प्राप्त हुईं । तदनन्तर गन्धार देश सम्बन्धी दुरण्ड नगर के वन प्रदेश में जब वह संभोग कर रहा था तब उन विद्याधरों ने स्त्रो सहित उसका शिर काट डाला । रुद्र के मरने पर उसकी विद्याओं ने उपद्रव कर उस देशको ऊजड़ कर दिया। घर घर में यम प्रविष्ट होकर लोगों के प्राण रूपी धनको चुराने लगा । उस नगर के राजा विश्वसेन ने नन्दिषेण मुनि से पूछा कि भगवन् ! इस भारी रोग के उपसर्ग का कारण क्या है ? मुनि बोले- रुद्र नामका विद्याघर तुम्हारे नगर में विद्याओं से क्षमा याचना नहीं कर सका उसके पहले हो उसे मार डाला गया इसी कारण उपसर्ग हो रहा है। राजा ने फिर पूछा कि स्वामिन् ! उपसर्ग का विनाश किस तरह होगा । इसके उत्तर में मुनि ने कहा कि यदि आप लोग उसका लिङ्ग काट कर तथा पार्वती की योनि में रखकर पूजा करेंगे तो विद्याएँ शान्त हो जावेंगी । “उपद्रव शान्त होता है" यह सुनकर राजा विश्वसेन ने वहाँ जाकर देश के सब लोगों से उक्त बात कही। लोगों ने ईंटों का ऊँचा चबूतरा बनाकर उस पर काटकर शिवका लिङ्ग रक्खा उस लिङ्ग पर योनि को स्थापना की
१. मरकोपसर्गस्य म० घ० ।
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