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________________ ६१८ षट्नाभृते सीतासीतोदादिषु सरस्सु पद्मादिषु गिरिषु मेर्वादिषु लवणोदादिषु समुद्रेषु देवारण्यादिषु च वनेषु सर्वमंगलया तया साधमनुदिनं रममाण उर्वरायां पर्यटति । स जटामुकुटविभूषितो वृषारूढो भस्मोद्धूलितो लोकानेवं वदति-अह त्रिजगस्वामी, कर्ता, हर्ता, शिवः, स्वयंभूः, शंभुः, ईश्वरः, हरः, शंकरः, सिद्धः, बुद्धः, त्रिपुरारिः, त्रिलोचनः, प्रकृतिशुद्धः, सर्वज्ञः, उमापतिः, भवः, ईशः, ईशानः, मृडः, मृत्युञ्जयः, श्रीकण्ठः, वामदेवः, महादेवः, व्योमकेश इत्यादीनि मम नामानि । अहमेव वर्तेऽपरो नास्ति । मायावी विजया बहूनि दिनान्युषित्वा जनमनांसि मंत्र रंजयित्वात्र भरतक्षेत्रमागत्य तेन शेवशास्त्र प्रकटीकृतं । तद्दीक्षिताः शैवाचार्या बहवो बभूवुः । दर्शितगुणा गणाः प्रभूता मिलताः, तेः परिवृताऽस्खलितप्रतापोऽनवरतमुमाप्रेमानुरागो द्वादश वर्षाणि विषयसौख्यं भुजानो मह्या हतविपक्षो भ्रमितः । तत्प्रताप दृष्ट्वा सर्वेऽपि विद्याधरा अतिभीताः । तैविचारितं एष महाविद्याबलीयानस्मान् भारयित्वा उभये अपि श्रेण्यौ निश्चितं ग्रहीष्यति । केनोपाये आदि नदियों में, पद्म आदि सरोवरों में, मेरु आदि पर्वतों में लवणोद आदि समुद्रों में तथा देवारण्य आदि वनों में सर्व मङ्गल स्वरूप उस उमा के साथ प्रतिदिन रमण करता हुआ पृथिवी पर घूमने लगा। जटा रूप मुकुट से विभूषित, बैल पर बैठा एवं भस्म रमाये हुए लोगों से यह कहता था कि मैं तीन जगत् का स्वामी हूँ, कर्ता हूँ, हर्ता हूँ, शिव हूँ, स्वयंभू हूँ, शम्भु हूँ, ईश्वर हूँ, हर हूँ, शंकर हूँ, सिद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, त्रिपुरारि हूँ, त्रिलोचन हूँ, प्रकृति से शुद्ध हूँ, सर्वज्ञ हूँ, उमापति हूँ, भव हूँ, ईश हूँ, ईशान हूँ, मृड हूँ, मृत्युञ्जय हूँ, श्रीकण्ठ हूँ, वामदेव हूँ, महादेव हूँ, व्योमकेश है, इत्यादि सब मेरे ही नाम हैं शिव मैं ही हूँ, और दूसरा नहीं है । उस . मायावी ने विजया, पर्वत पर बहुत दिन तक रह कर मन्त्रों से लोगों के मनको अनुरक्त किया। तदनन्तर भरत क्षेत्र में आकर उसने शैव शास्त्र प्रकट किया। उसके द्वारा दीक्षा को प्राप्त हुए बहुत से शैवाचार्य होगये । उसके गुणोंको देखकर बहुत से गण आ मिले। उन सब से घिरा, अस्खलित प्रताप का धारक, निरन्तर उमाके प्रेम से अनुराग रखने वाला एवं विषय सुखका उपभोग करता हुआ वह रुद्र बारह वर्ष तक पृथिवी में शत्रु रहित हो घूमता रहा। उसके प्रताप को देखकर सभी विद्याधर अत्यन्त भयभीत हो गये। उन विद्याधरों ने विचार किया कि यह महाविद्याओं से अत्यन्त बलवान् है अतः हम सबको मारकर निश्चित ही दोनों श्रेणियों को ले लेगा। जब तक यह हम लोगोंको नहीं मारता है तब तक किस उपाय से इस दुष्ट को मारा जाय ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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