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मोक्षप्राभृतम् .
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धान्याः पंडितायाः पालयितु दत्ता। अथाष्टचन्द्रनपेषु प्रधान 'चन्द्रसेनाभिधानो गगनाङ्गणे संचोदितविमान एकस्मिन् दिने सावस्तिमागतः । तस्य कुलस्त्रिया निजभगिन्या अपत्यरहितायाः सन्मानपूर्वक मित्रवत्या वासवनृपभार्यया गिरिकाणकानाम्न्याः सा उमा दत्ता । तयापि प्रतिपाल्य नवयौवना कृता सा सुन्दरी सुरकूटपुरेशविद्याधरेशतडिद्वेगस्य परिणायिता। सा मदोन्मत्त सुष्टु सुरतानुरागा यदा सुरतसुखमनुभवति तदा तडिवेगो मतः । उमात यौवनमदेन स्वच्छन्दा जाता । विध्वस्तोमा देवदारुनगरे एकस्मिन् दिने गता । देवदारुणा तच्चारं ज्ञात्वा रतिगुणाधिका सा स्थाणोविद्याविभवस्या,माननेनार्धासनस्याङ्गीकरणेन च तस्य भार्या पुनर्भू
र्जाता। भूतेशस्तु तस्या मुखविशप्रसूनं निरीक्षमाणोऽहनिशं तिष्ठति । सरित्सु mmm शब्द से रोती हुई उस कन्या को देखा। वे उसका उमा नाम रखकर उस कोमलाङ्गी को दयाभाव से घर लेती आई । उन चारों ब्राह्मण कन्याओं ने उस कन्या को राजमहल में ले जाकर वासव राजा को महादेवी मित्रवती को दिखलायां और उसने भी 'यह हमारी पुत्री की पुत्री है' यह जान कर ले ली तथा पालन करने के लिये अपनी पण्डिता नामकी धायको दे दी।
तदनन्तर अष्ट चन्द्र नामक विद्याधर राजाओं में प्रधान इन्द्रसेन नामका राजा एक दिन आकाशमें विमान चलाता हुआ सावस्ति नगर आया । चन्द्रसेन की स्त्री सन्तान रहित थी तथा रिश्ते में वह सावस्ति के राजा वासव की रानी मित्रवती की बहिन होती थी उसका नाम गिरिकणिका था। मित्रवती ने वह उमा नामकी पुत्री उसे सन्मान पूर्वक दे दी। तथा उसने भी पाल कर उसे नवयौवनवती कर दिया। वह सुरकूट नगर के स्वामी तडिद्वेग नामक विद्याधर राजा को विवाही गई । उमा मदोन्मत्त थी तथा सुरत-संभोग में अत्यन्त अनुराग रखती थी। एक दिन जब वह संभोग सुख का अनुभव कर रही थी उसी समय तडिद्वेग का मरण हो गया। उमा यौवन के मद से स्वच्छन्द हो गई। विधवा उमा एक दिन देवदारु के नगर आई वहाँ देवदारु के द्वारा उसे रुद्र की प्रवृत्ति का पता चला। वह स्वयं रतिगुण से अधिक था अर्थात् अधिक रतिको अच्छा मानतो थी इसलिये रुद्र की भार्या हो गई। रुद्र ने उसे विद्या रूप ऐश्वर्य का आधा भाग दिया अपना अर्धासन प्रदान किया। रुद्र उसके मुख कमलको रात दिन देखता रहता था। वह सीता, सीतोदा
१. इन्द्रसेनाभिधानो म०। .
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