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________________ ५६८ षट्प्राभूते ६.६भावेन तिष्ठतीति केवलः । विशुद्धात्मा विशेषेण शुद्धः कर्ममलकलंकरहित आत्मा । स्वभावो यस्य स विशुद्धात्मा। (परमेट्ठी परमजिणो ) परमेष्ठी परमजिनः, परमे इन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्रमुनीन्द्रादिवंदिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी पंचपरमेष्ठिरूपः, परमजिणो परा उत्कृष्टा प्रत्यक्षलक्षणोपलक्षिता मा प्रमाणं यस्येति परमः, अथवा परेषां भव्यप्राणिनां उपकारिणी मा लक्ष्मीः समवसरणविभूतिर्यस्येति परमः, अनेकविषमभवगहनदुःखप्रापणहेतून् कर्मारातोन् जयति समूलकाषं कषतीति जिनः परमश्वासी जिनः परमजिनः तीर्थंकरपरमदेवः । ( सिवंकरो ) शिव परममंगलं करोति शिवंकरः, अथवा शिवं मोक्षं करोति भक्तभव्यजीवानां मोक्षं विदधातीति शिवंकरः शिवतातिरपरपर्यायः । निज शुद्ध-बुद्धव-स्वभावे आत्मनि बलमनन्तवोयं यस्य स भवति केवलः इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिनकी के अर्थात् शुद्ध बुद्धक स्वभाव आत्मा में अनन्त बल विद्यमान है उस रूप है अथवा 'केवते सेवते निजात्मनि एकलोलीभावेन तिष्ठतीति केवलः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार निज आत्म-स्वरूप में लीन हैं। __ वह परमात्मा विशुद्धात्मा है अर्थात् उनका आत्म-स्वभाव कर्ममलकलंकसे रहित होने के कारण अत्यन्त शुद्ध है। इन्द्र धरणेन्द्र नरेन्द्र और मनीन्द्रों के द्वारा वन्दित परम उत्कृष्ट पदमें स्थित होनेसे परमात्मा परमेष्ठी कहलाता है। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु के भेद से परमेष्ठीके पाँच भेद हैं, परमात्मा उन्हीं पंच परमेष्ठी रूप हैं। प्रत्युत्पन्न-ग्राही नेगमनय की अपेक्षा अरहन्त और सिद्ध परमेष्ठी रूप हैं तथा भूतप्रज्ञापन नैगमनय की अपेक्षा आचार्य उपाध्याय और साधु रूप भी हैं। परमात्मा परम जिन हैं 'परा-उत्कृष्टा प्रत्यक्षलक्षणोपेता मा-प्रमाणं यस्य सः' इस समास के अनुसार जो प्रत्यक्ष प्रमाण से युक्त हैं वह परम हैं अथवा 'परेषां भव्यप्राणिनामुपकारिणी मा लक्ष्मीः समवसरणविभूतिर्यस्येति परमः' इस समास के अनुसार जो भव्य जीवोंका उपकार करने वाली लक्ष्मी से सहित हैं वह परम हैं। 'कर्मारातीन् जयतीति जिनः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो संसार के गहन दुःखों को प्राप्त कराने वाले कर्म रूपी शत्रुओं को जीतता है वह जिन है। इस तरह परम-जिनका अर्थ तीर्थकर परम देव है। वह परमात्मा शिवंक है अर्थात् परममङ्गल अथवा मोक्षको प्राप्त करानेवाला है, शाश्वत है, अविनाशी है अथवा 'सासो' के स्थान पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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