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________________ -६.७] मोक्षप्राभृतम् ५६९ सासबो शश्वद्भवः शाश्वतोऽविनश्वरः । ( सासओ) इति च क्वचित् पाठो दृश्यते तत्रायमर्थः-साशपः भक्तभव्यानां आशापूरणसमर्थ इत्यर्थः । (सिद्धो) सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिविद्यते यस्य स सिद्धः परमनिर्वाणपदमारूढ इत्यर्थः। 'तदुक्तं--तस्य त्रिविधस्यात्मनः स्वरूपं शास्त्रान्तरेऽपि प्रोक्तमस्तीति श्रीकुन्दकुन्दाचार्या निरूपयन्ति आरुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छडिऊण तिविहेण । झाइज्जइ परमप्पा उवइ8 जिणवरिदेहि ॥ ७॥ आरुह्य अन्तरात्मानं बहिरात्मानं त्यक्त्वा त्रिविधेन । ध्यायते परमात्मा उपदिष्टं जिनवरेन्द्रः ॥ ७॥ ( आरुहवि अंतरप्पा ) आरुह्य प्रादुर्भाव्य आश्रित्येति, किं ? अंतरप्पा-- अन्तरात्मानं भेदज्ञानावलम्बनं कृत्वेत्यर्थः। (बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण ) त्रिविधेन मनोवचनकायबंहिरात्मानं त्यक्त्वा । (झाइज्जइ परमप्पा) घ्यायते 'सासवो' पाठ भी कहीं देखा जाता है उस पाठकी अपेक्षा 'साशप' है अर्थात् भक्त भव्य जीवोंकी आशाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं। परमात्मा सिद्ध है अर्थात् स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धि उसे प्राप्त हो चुकी है। ____ इस तरह तीन प्रकारके जोवोंका स्वरूप अन्य शास्त्रों में भी कहा गया है ॥ ६॥ गाथार्य-मन वचन काय इन तीनों योगों से बहिरात्मा को छोड़कर तथा अन्तरात्मा पर आरूढ़ होकर अर्थात् भेदज्ञानके द्वारा अन्तरात्मा का आलम्बन लेकर परमात्मा का ध्यान किया जाता है, ऐसा जिनेन्द्र देवने उपदेश दिया है ॥ ७ ॥ विशेषार्थ-जो शरीर को ही आत्मा मानता है वह बहिरात्मा है, मिथ्यादृष्टि है। इस अवस्था को त्रिविध योग से छोड़कर अन्तरात्मा १. समस्त प्रतियों में 'तत्तं' पाठ है परन्तु उसके आगे कोई गाथा उद्घत नहीं है । ऐसा जान पड़ता है कि 'आरुहवि'--आदि गाथा ही उद्धृत गाथा है क्योंकि यह गाथा न०४ की गाथासे गतार्थ हो जाती है । संस्कृत टीकाकार ने इसे मूल ग्रन्थ समझ कर इसकी टीका कर दी है। इसलिये यह मूल में शामिल हो गई। यह गाथा कहां की है, इसकी खोज आवश्यक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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