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षट्प्राभूते
[ ६.८
अहर्निशं चित्यते, कौऽसौ ? परमात्मा निश्चयनयेन कर्ममलकलङ्करहितः सिद्धस्वरूपः निजपरमात्मा ध्यायते अर्हत्सिद्धस्वरूपोऽवलोक्यते द्विविधमभ्यासं कुर्वाणो मुनिः परमात्मानमेव प्राप्नोति - - अर्हत्सिद्धसदृशो भवति । तथा चोक्तं'आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्ध्या घ्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं किं नाम नो विषविकारमपाकरोति ॥१॥
( उवट्ठ' जिणर्वारिदेहि ) उपदिष्टं प्रतिपादितं । कैः, जिनवरेन्द्रः श्रीमद्ः भगदहंत्सर्वज्ञवीतरागेरिति शेषः ।
बहिरत्ये फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुओ । णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ ॥८॥ बहिरर्थे स्फुरितमना इन्द्रियद्वारेण निजस्वरूपच्युतः । निजदेहं आत्मानमध्वस्यति मूढदृष्टिस्तु ॥ ८ ॥
बनना चाहिये अर्थात् भेदज्ञानका आलम्बन कर शरीरसे भिन्न आत्माका अनुभव करना चाहिये, अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि है । इस तरह अन्तरात्मा बनकर परमात्मा का ध्यान करना चाहिये । निश्चयनय से परमात्मा कर्ममल कलंक से रहित सिद्ध स्वरूप है । जो अर्हन्त और सिद्धका स्वरूप है वही मेरा स्वरूप है, इस प्रकार ध्यान करना चाहिये। ऐसा ध्यान करने वाला मुनि परमात्मा को प्राप्त कर लेता है अर्थात् स्वयं अर्हन्त सिद्ध स्वरूप हो जाता है ।
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जैसा कि कहा गया है—
आत्मा - हे भगवन् ! विद्वानोंके द्वारा आपसे अभिन्न मानकर ध्यान किया हुआ आत्मा आपके ही समान प्रभाव वाला हो जाता है सो ठीक ही है क्योंकि 'यह अमृत है' इस प्रकार ध्यान किया हुआ पानी भी क्या विषके विकार को दूर नहीं कर देता ? अर्थात् अवश्य कर देता है ।
परमात्म- अवस्था को प्राप्त करने का यह मार्ग जिनेन्द्र भगवान् वीतराग सर्वज्ञ देवने कहा है ॥ ७ ॥
गाथार्थ - बाह्य पदार्थों में जिसका मन स्फुरित हो रहा है तथा इन्द्रिय रूप द्वारके द्वारा जो निज स्वरूप से च्युत हो गया है ऐसा मूढदृष्टि - बहिरात्मा पुरुष अपने शरीर को ही आत्मा समझता है ||८||
१. कल्याणमन्दिरस्तोत्रे कुमदचन्द्रस्य ।
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