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________________ -६.६ ] मोक्षप्राभृतम् घटयन्ति न विघ्नकोटयो निकटे त्वत्क्रमयोनिवासिनाम् । पटवोऽपि पदं दवाग्निभिर्भयमस्त्व 'म्बुषि मध्यवर्तिनाम् ॥ २ ॥ हृदये त्वयि सन्निधापिते रिपवः केऽपि भयं विधित्सवः । अमृताशिषु सत्सु सन्ततं विषभेदापितविप्लवः कुतः ॥ ३ ॥ उपयान्ति समस्तसम्पदो विपदो विच्युतिमाप्नुवन्त्यलम् । वृषभं वृषमार्गदेशिनं झषकेतुद्विष मानुषां सताम् ॥ ४ ॥ इत्थं भवंतमतिभक्तिपथं निनीषोः, प्रागेव बन्धकलयः प्रलयं व्रजन्ति । पश्चादनश्वरमयाचितमप्यवश्यं, संपत्स्यतेऽस्य विलसद्गुणभद्रभद्रम् ॥ ५ ॥ ५६७ केवलोसहायः केवलज्ञानमयो वा के परब्रह्मणि निजशुद्धबुद्धैकस्वभावे आत्मनि बलमनन्तवीर्यं यस्य स भवति केवलः, अथवा केवते सेवते निजात्मनि एकलोली घटयन्ति -- बड़े बड़े करोड़ों विघ्न भी आपके चरणों के समीप निवास करने वाले लोगों में अपना स्थान नहीं बना पाते सो ठीक ही है क्योंकि ऐसा होने पर फिर समुद्र के मध्य वास करनेवाले लोगों को भी दावानलसे भय उत्पन्न हो ? हृदये - हृदयमें आपके स्थापित किये जाने पर भय उत्पन्न करने वाले शत्रु कौन होते हैं ? अर्थात् कुछ भी नहीं । सो ठीक ही है क्योंकि अमृतभोजी जनोंके रहते हुए किसी भी प्रकार के विषसे उत्पन्न होने वाला उपद्रव कैसे हो सकता है ? उपयान्ति -- जो इस तरह धर्मका मार्ग बतानेवाले तथा कामके द्वेषी भगवान् वृषभदेव को प्राप्त हुए हैं— उनके शरणागत हुए हैं उन्हें समस्त सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं और विपत्तियां अच्छी तरह नष्ट होती हैं । इत्थं - शोभायमान गुणों से कल्याण करने वाले जिनेन्द्र इस प्रकार • अपने आपको अपने भक्ति के मार्ग में ले जाने के इच्छुक मनुष्य के बन्धसम्बन्धी कलह पहले ही नष्ट हो जाते हैं और पीछे अविनाशी पद बिना याचना किये अवश्य ही प्राप्त होता है । परमात्मा केवल अर्थात् असहाय हैं - दूसरे पदार्थों की सहायता से - आलम्बनता रहित हैं अथवा केवल ज्ञान मय हैं अथवा 'के' परब्रह्मणि १. मस्त्यम्बुधि म० । २. द्विषमेवमायुषां क० द्विषमायुषां म० । ३. एतत् श्लोकपञ्चकं महापुराणस्य ४४ तमे पर्वणि ३५८-३६२ संख्यानं वर्तते । जयकुमारोक्तिरियम | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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