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षट्प्राभृते [५. १०७च, नराणां भूमिगोचरनृपादीनां च । ( पसंसणीयो) प्रशंसनीयः स्तवनीयः स्तोतव्यः संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंश-सौरसेनी-मागधी पैशाची-चूलिकापैशाचीबद्धगद्यपद्यानवद्यस्तुतिभिविशेषेणाभिवादनीयः ( धुवं होइ ) ध्रुवं निश्चयेन भवति । अत्र संदेहो नास्ति । क्षमावान् मुनिस्तीर्थङ्करो भवतीति भावार्थः। . इय णाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयलजीवाणं । चिरसंचियकोहसिहि वरखमसलिलेण सिंचेह ॥१०॥
इति ज्ञात्वा क्षमागुण ! क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान् ।
चिरसंचितक्रोधशिखिनं वरक्षमासलिलेन सिञ्च ॥१०॥ ( इय णाऊण ) इति पूर्वोक्ततीर्थंकरपदप्रापर्क क्षमाफलं ज्ञात्वा विज्ञाय । (खमागुण ) हे क्षमागुण ! चतुरशीतिशतसहस्रगुणानां मध्ये प्रधानक्षमागुण हे मुने ! ( खमेहि ) क्षमस्व । (तिविहेण ) मनोवचनकायलक्षणत्रिप्रकारेण ! ( सयलजीवाणं ) सकलजीवान् एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्तान् । ( चिरसंचियकोहसिहिं ) चिरं दीर्घकालं संचितः पुष्टितः पुष्टि नीतः क्रोध एव शिखी वैश्वानरः दाहसन्तापकारकत्वात् तं क्रोधशिखिनं कोपाग्नि । ( वरखमसलिलेण सिंह ) वरा उत्तमा क्षमा सर्वसहनधर्मः सैव सलिलं पानीयमुदकं आयुःस्थिरीकरणमनःप्रसादजनकत्वात् तेन वरक्षमासलिलेन कृत्वा सिंचत्वं विध्यापय । उक्तं च
निर्दोष स्तुतियों के द्वारा प्रशंसनीय होता है। तात्पर्य यह है कि क्षमावान् मनुष्य तीर्थङ्कर होता है । परिमंडिओ य (परिमण्डितश्च ) यहाँ जो 'च' शब्द आया है उससे यह सूचित होता है कि यदि कोई गृहस्थ भी क्षमाभाव धारण करता है तो वह भो उस क्षमाभाव से स्वर्ग जाकर परम्परा से मोक्ष को प्राप्त होता है । १०६।।
गाथार्थ हे क्षमा गणके धारक मुने ! इस तरह क्षमाका फल जानकर तुम समस्त जीवोंको मन वचन काय से क्षमा करो और चिर-काल से सञ्चित क्रोध रूपी अग्निको उत्कृष्ट क्षमा रूपी जल से सींचो ॥१०७||
विशेषार्थ-क्षमा तोयंकर पदको प्राप्त कराने वाली है ऐसा जानकर हे क्षमा के धारक मुने ! तुम एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त के समस्त जीवोंको मन वचन काय से क्षमा करो-कभी किसी के प्रति कलुषित भाव न करो। चिरकाल से संचित को हुई क्रोध रूपी अग्निको तुम क्षमा रूपी जलके द्वारा सींचो । जैसा कि कहा है
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