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भावप्रामृतम्
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ज्ञानं च भवति । अन्तरायविनाशादनन्तवीर्य जीवस्य स्यात् । आयुकर्मविध्वंसना. चेतनस्य जन्ममरणाभावो भवति । नामकर्मनिर्मूलनानरस्यामूर्तत्वं जायते । नीचोच्चगोत्रविमासनात्कुलद्वयविनाशो भवति । वेदनीयकर्मनिमूलकाषं कषणात् जीवस्येन्द्रियोत्पन्नसुखाभावः संजायते। एकस्मिन्निष्टे वस्तुनि निश्चला मतिर्ध्यान । आरौिद्रधापेक्षया तु मतिश्चंचला अशुभा शुभा वा सा भावना कथ्यते, चित्तं चिन्तनं अनेकनययुक्तानुप्रेक्षणं ख्यापनं श्रुतज्ञानपदालोचनं वा कथ्यते न तु ध्यानं ।
रही हो तो चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोक-पूरण समुद्घान की क्रिया करके और उतने ही समयों में आत्म-प्रदेशों को संकुचित कर पहले चारों अघातिया कर्मों की स्थिति बराबर करते हैं अर्थात् वेदनीय आदि तीन कर्मोकी स्थिति को घटा कर आयु कर्म की स्थिति के बराबर करते हैं पश्चात् सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाति नामक शुक्लध्यान के धारक बनते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाति नामका शुक्लध्यान तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में होता है । विहार या दिव्यध्वनि आदिके समय उनके कोई ध्यान नहीं होता।].
तदनन्तर अयोग केवली के ससुच्छिन्न-क्रिया-निवति नामक चौथा शुक्लध्यान जिसका दूसरा नाम व्युपरत-क्रिया-निवति भी है, होता है। उस ध्यान में स्थित अयोग केवली भगवान् के समस्त कर्मोंका आस्रव रुक जानेसे शेष समस्त कर्मोंके क्षय करने में समर्थ वह संपूर्ण यथा-ख्यात चारित्र होता है जो कि मोक्षका साक्षात् कारण होता है । अन्तिम दो शुक्लध्यानों में चिन्ता-निरोधका अभाव होनेपर भी ध्यानका व्यवहार होता है क्योंकि उनमें ध्यान का कार्य जो योगोंका अभाव और अघाति. कर्मोका क्षय है उसका सद्भाव पाया जाता है और यहो योगोंका अभाव तथा अघाति कर्मोंका क्षय उनके ध्यान व्यवहार में निमित्त भूत हैं। दूसरी बात यह है कि समस्त वस्तुओं को साक्षात् जानने वाले अर्हन्त भगवान् के कुछ ध्येय भी तो नहीं हैं उनके जो ध्यान कहा है वह असमान कर्मोको स्थिति में समानता करने के लिये जो चेष्टा है उस रूप है अथवा कर्मोकी स्थिति समान होनेपर उनके क्षयं करने के योग्य समय में होनेवाली जो अलौकिक मनोषा-ज्ञान की परिणति है, उस रूप है।
अब किस कर्मके क्षयसे कौन गुण प्रकट होता है यह कहते हैं-मोहके क्षयसे जीवके सुख तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षय से ज्ञान और दर्शन गुण प्रकट होते हैं । अन्तराय के नाश से अनन्त वीर्य होता है।
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