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________________ ૪૨૮ षट्प्राभूते [५.७८ अत्र संहननलक्षणं यथा यदुदयादस्थिबन्धनविशेषस्तत्संहननं षट्प्रकारं । वज्रा - कारोभयास्थिमध्ये सवलयबन्धनं सनाराचं वज्रवृषभनाराचसंहननं । तदेव वलयरहितं वज्रनाराचसंहननं । वज्जाकारवलयव्यपेतं सनाराचं नाराचसंहननं । एकमस्थि सनाराचं अपरमनाराच अर्द्धनाराचसंहननं । उभयास्थिप्रान्ते सकीलकं कीलिकासंहननं । अन्तरप्राप्तपरस्परास्थिसन्धिबहिः शिरास्नायुमांसवेष्टितं असंप्राप्तासुपाटिकासंहननं चेति । अष्टसप्ततितम्यां गाथायां बारसविहतवयरणं इत्यस्य पादस्य व्याख्यान समाप्तं । तेरसकिरियाओ भावि तिविहेण त्रयोदशक्रिया भावय स्वं त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धया पंचनमस्काराः षडावश्य कानि, चैत्यालयमध्ये प्रविशता आयुकर्मके क्षय से जन्म मरण का अभाव होता है । नाम कर्मके नाश से अमूर्तिकपना उत्पन्न होता है । नीच गोत्र और उच्चगोत्र के क्षय से नोच तथा उच्च दोनों कुलोंका नाश होता है और वेदनीय कर्मका निर्मूल नाश होनेसे जीवके इन्द्रियजन्य सुखका अभाव होता है । किसी एक इष्ट वस्तु में जो बुद्धि स्थिर हो जाती है वही ध्यान कहलाती है । आत्तं, रौद्र और धर्म्य ध्यानकी अपेक्षा. जो जो अशुभ अथवा शुभ विकल्पको लिये हुए चञ्चल अस्थिर बुद्धि होती है वह भावना कहलाती है, उसीको चित्त, चिन्तन, अनेक नयोंसे युक्त अनुप्रेक्षण, ख्यापन अथवा श्रुतज्ञानके पदका आलोचन कहते हैं, न कि ध्यान । अब यहाँ संहननका लक्षण और उसके भेदोंका वर्णन करते हैंजिसके उदय से हड्डियों का बन्धन - विशेष होता है उसे संहनन नाम कर्म कहते हैं । इसके छह भेद हैं-१ वज्रषंभनाराच संहनन, २ वज्रनाराच संहनन, ३ नाराच संहनन, ४ अर्द्धनाराच संहनन, ५ कीलक संहनन और ६ अप्राप्त पाटिका संहनन । जिसमें वज्रके आकार दो हड्डियोंके बीच में aah ही वेष्टन हों और वज्रकी ही कीलें हों उसे वज्रर्षभ नाराच संहनन कहते हैं । जिसमें सिर्फ वज्रके वेष्टन न हो बाकी सब पूर्ववत् हो उसे वज्रनाराच संहनन कहते हैं । जो वज्राकार हड्डी और वज्राकार वेष्टन से रहित हो मात्र साधारण हड्डी कीलोंसे सहित हो उसे नाराच संहनन कहते हैं । जिसमें एक हड्डी कील से सहित हो और दूसरी कीलसे रहित हो उसे अर्द्धनाराच संहनन कहते हैं । जिसमें दोनों हड्डियों के अन्त में कीलें हों उसे कीलिका संहनन कहते हैं जिसमें हड्डियों की सन्धियाँ भीतर परस्पर एक दूसरे से न मिली हों सिर्फ बाह्यमें नसें ताँत अथवा मांस वेष्टित हो उसे असं प्राप्त - सुपाटिका संहनन कहते हैं। इस तरहसे अठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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