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________________ - ५७८] भावप्राभृतम् ४२९ निसिही निसिही निसिही इति वारत्रयं हृद्युच्चायंत जिनप्रतिमावन्दनाभक्ति कृत्वा बहिनिर्गच्छता भव्यजीवेन असिही असिही असिही इति वारत्रयं हृद्युच्चार्यते इति त्रयोदशक्रिया हे भव्य ! त्वं भावय । तथा चोक्तं 'निःसंगोऽहं जिनानां सदनमनुपमं त्रिः परीत्येत्य भक्त्या स्थित्वा गत्वा निषिद्धयुच्चरणपरिणतोऽन्तः शनैर्हस्तयुग्मं । भाले संस्थाप्य बुद्धया मम दुरितहरं कीर्तये शक्रवन्द्यं निन्दादूरं सदाप्तं क्षयरहितममुं ज्ञानभानु जिनेन्द्रं ॥ १ ॥ अरे लोका दुरात्मानो ! यदि भवद्भिजिनप्रतिमा चैत्यालयश्च न मान्यते तदेदं वृत्तं पूज्यपादैजिनवन्दनाविधिः कथमुक्तः । तेन दुराग्रहं विमुच्यास्तिकत्वं भावनीयं भवद्भिः । अथवा पंचमहाव्रतानि पंचसमितयस्तिस्रो गुप्तयश्चेति त्रयोदशक्रियास्त्रयोदशविधं चारित्रं हे भव्यवरपुण्डरीकमुने ! त्वं भावय । ( धरहि - हत्तरवी गाथा में 'बारस विहतवयरणं' इस पदका व्याख्यान हुआ । अब 'तेरस किरियाओ भावि तिविहेण' इस पदका व्याख्यान करते हैं । हे भव्य ! तू तेरह प्रकार की क्रियाओं की मन वचन काय से भावना कर । पञ्चपरमेष्ठियोंके पाँच नमस्कार, समता, वन्दना आदि छह आवश्यक चैत्यालय के भीतर प्रवेश करते समय 'निसिही निसिही, निसिही' इस प्रकार तीन वार उच्चारण करना और जिन प्रतिमाकी वन्दना तथा भक्ति आदि करके बाहर निकलते हुए जीवनके द्वारा 'असिही असिही असिही' इस प्रकार तीन बार कहना ये तेरह क्रिया हैं । हे भव्य ! तू इनका चिन्तन कर । जैसा कि कहा गया है निःसंगोऽहं- मैं निःस्पृह हो अनुपम जिनेन्द्र मन्दिर को जाता हूँ, वहाँ भक्ति पूर्वक तीन प्रदक्षिणाएँ देकर तथा निसिही-निसिही निसिही इस प्रकार तीन बार उच्चारण करता हुआ मन्दिरके भीतर प्रवेश करता हूँ, पश्चात् दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर रख अपने पापको हरने वाले उन जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करता हूं जो इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय हैं, निन्दासे दूर हैं, सत्पुरुषों के द्वारा शरण्य बुद्धि से प्राप्त हैं, क्षयसे रहित हैं और ज्ञान के सूर्य हैं । अरे दुरात्माओं लौंक जनो ! यदि आप लोग जिन प्रतिमा और जिन चैत्यालयों को नहीं मानते हो तो पूज्यपादाचार्य ने जिन-वन्दना को उक्त विधि क्यों कही ? इसलिये आप लोगों को दुराग्रह छोडकर आस्तिक १. ईर्यायशुद्धी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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