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बोधप्रामृतम्
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कोऽसौ मोक्षमार्गो यं दर्शनं कर्तृतया दर्शयति । ( सम्मत्तं ) सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं। तथा ( संजम) चारित्रं पञ्चमहाव्रत-समिति-त्रिगुप्ति-लक्षणं दर्शयति ( सुधम्मच ) सुधर्म चानशनादिद्वादशविधं तपश्च दर्शयति । कथंभूत दर्शनं ? (णिग्गंथं ) बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितं । भूयोऽपि कथंभूतं दर्शनं ? ( णाणमयं ) सम्यग्ज्ञानेन निवृत्तम् । (जिणमग्गे दंसणं भणियं ) जिनमार्गे सर्वज्ञवीतरागप्रतिपादिते मार्ग दर्शनं भणितं यतिश्रावकाधारं प्रतिपादितं, अविरतसम्यग्दृष्ट्याधारभूतं च ॥१४॥
जह फुल्लं गंधमयं भवदि हु खोरं स घियमयं चावि । तह दंसणं हि सम्मं गाणमयं होई रूवत्यं ॥१५॥
यथा पुष्पं गन्धमयं भवति स्फुटं क्षोरं तघृतमयं चापि ।
तथा दर्शनं हि सम्यग्ज्ञानमयं भवति रूपस्थम् ॥१५॥ (जह फुलें गंधमयं ) यथा पुष्पं गन्धमयं भवति । ( भवदि हि खीरं सं घियमयं चावि ) भवति हु-स्फुटं क्षीरं दुग्धं, स-तत् घृतमयं घृतयुक्तं चापि ।
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व्याकरण के इस वचन से कर्तृवाच्य में युट् प्रत्यय होकर दर्शन, शब्द सिद्ध हुआ है । वह मोक्षमार्ग क्या है जिसे दर्शन कर्ता बन कर दिखलाता है ? इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप मोक्षमार्ग को दिखलाते हैं।
तत्वार्थ-श्रद्धान रूप सम्यक्त्व, पांच महाव्रत, पाँच समिति और तोन गुप्तियों रूप चारित्र, तथा अनशनादि बारह प्रकार के तप रूप सुधर्म, यह मोक्षमार्ग है। वह दर्शन निग्रंन्य है-बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह , से रहित है, तथा ज्ञानमय है-सम्यग्ज्ञान से रचा हुआ है। जिनमार्गसर्वज्ञ वीतराग देवके द्वारा प्रतिपादित मार्गमें दर्शनको सम्यक्त्व रूप कहा है। यह सम्यक्त्व रूप दर्शन, मुनि और श्रावकों का तथा अविरत सम्यग्दृष्टि का आधारभूत कहा गया है ॥ १४ ॥ - गाथार्थ-जिसप्रकार फूल गन्धमय और दूध घृतमय होता है उसी प्रकार दर्शन भी निश्चयसे सम्यग्ज्ञानमय होता है। यह सम्यग्दर्शन यति श्रावक और असंयत सम्यग्दृष्टिके रूप में स्थित है ।। १५ ॥
विशेषार्थ-जिस प्रकार पुष्प गन्धमय होता है अर्थात् पुष्पके प्रत्येक कणमें गन्ध विद्यमान रहता है और दूध घृतमय होता है अर्थात् दूधके प्रत्येक कणमें घृठ व्याप्त रहता है उसीप्रकार दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व भी
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