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________________ ४७८ षद्माभृते [५. १०१कंदं मूलं बीयं पुफ्फै पत्तादि किंचि सच्चित्तं। असिऊण माणगव्वं भमिओसि अणंतसंसारे ॥१०१॥ कन्दं मूलं बीजं पुष्पं पत्रादि किंचित् सचित्तम् । अशित्वा मानगर्वे भ्रमितोसि अनन्तसंसारे ॥१०१।। कंदं सूरणं लशुनं पलाण्डु क्षुद्रवृहन्मुस्तां शालुकं-उत्पलमूलं शृङ्गवेरं आर्द्रवरवर्णिनी आर्द हरिद्रेत्यर्थः । ( मूलं ) हस्तिदन्तकं मूलकमित्यर्थः नारंगकंटकं . गाजरमित्यर्थः । (बीय) चणकादिक । (पुफ्फ) पुष्पं सेवत्रीपुष्पं करणबीजपूरपुष्पं । गाथार्थ हे जीव ! तूने मान्यता के गर्व-वश सचित्त कन्द, मूल, बीज, पुष्प तथा पत्ता आदिको खाकर अनन्त संसारमें भ्रमण किया है ॥१०१॥ विशेषार्थ-कन्द शब्दसे सूरण, लहसुन, प्याज, छोटा बड़ा मोथा, . शालूक अर्थात् उत्पलों-नीलकमलोंकी जड़, अदरक तथा गोली हल्दी आदि का ग्रहण होता है । मूलशब्दसे मूली तथा गाजर आदिको लेना चाहिए । बीजका अर्थ चना गेहूँ आदि होता है। पुष्प से गुलाबका फूल तथा करण और बीजपूर आदिका फुल लिया जाता है। पत्र आदिसे ताम्बूल आदिके पत्ता ग्राह्य हैं । इनके सिवाय सचित्तं किमपि यहाँ पड़े हुए किमपि शब्द से ककड़ी आदिका ग्रहण होता है । इनमें कन्दमूल तो स्पष्ट हो अनन्तकाय हैं इनके खानेसे अनन्तानन्त. स्थावर जीवोंका विघात होता है । फूलोंमें त्रस जीवोंका निवास होता है। पत्तों में साधारण और प्रत्येक दोनों प्रकारके पत्ते होते हैं और चना गेहूँ आदि बोज हरी अवस्था में तो सचित्त हैं ही परन्तु सूख जाने पर भी योनिभूत होनेके कारण सचित्त माने जाते हैं । इनके सिवाय हरी ककड़ी आदि अन्य पदार्थ भी ग्रहण में आते हैं। हे आत्मन् ! मैं बड़ा हूँ लोकमान्य हूँ, सब कुछ खा सकता हूँ इस प्रकारके गर्वमें आकर तूने भक्ष्य अभक्ष्यका विचार किये बिना उक्त वस्तुओं को खाकर अनन्त स्थावर अथवा अनेक त्रस जीवोंका घात किया है उसीके फलस्वरूप तू अनन्त संसार में भटक रहा है। तूने यह सब पहले अज्ञान दशा में किया है परन्तु अब तुझे विवेक जागृत हुआ है इसलिये उस ओरसे अपनी प्रवृत्ति हटा ।।१०१॥ __ [अन्य मतावलम्बी साधुओं में जमीकन्द आदि खाकर रहना तपस्या का अङ्ग माना जाता है। उसका निराकरण करते हुए यहां कहा गया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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