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-५. १०२]
भावप्राभृतम्
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( पत्तादि ) नागवल्लीदलं । ( किंचि सचित्तं ) किमपि ऐर्वार्वादिकं । ( असिऊण माणगव्वे ) अशित्वा भक्षयित्वा मानेन मान्यतया गर्वे सति । ( भूमिओसि अनंतसंसारे ) भ्रमितस्त्वं हे जीव ! अनन्तसंसारे अपर्यन्तभवसंकटे इति भावः ।
विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण ।
अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्ति ण पार्वति ॥१०२॥ विनयं पंचप्रकारं पालय मनोवचनकाययोगेन । अविनतनराः सुविहितां ततो मुक्ति न प्राप्नुवन्ति ॥१०२॥
( विजयं पंचपयारं ) विनयं यथायोग्यं करयोटन - पादपतन-अभ्युत्थान स्वागतभाषणादिकं पंचप्रकारं ज्ञानस्य दर्शनस्य, चारित्रस्य तपसश्च विनयं विनीतत्वं, उपचारलक्षणं पंचमं विनयं । हे आत्मन् ! हे मुने ! हे जीव ! हे आसन्नभव्य !
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कि जिन चीजों के खाने में अनन्त जीवोंका विधात होता है वे तपस्या के अङ्ग नहीं हो सकते । जैन शास्त्रोंमें अभक्ष्य पदार्थोंके पाँच विभाग किये हैं- ( १ ) जिनके खाने में अनन्तानन्त स्थावर जीवोंका विघात होता है ) जिनके खाने में स जीवोंका विघात होता है ( ३ ) जो प्रमाद नशा उत्पन्न करने वाली हों ( ४ ) जो शरीर की प्रकृतिके अनुकूल न होनेसे अनिष्ट हों और ( ५ ) जो कुलीन मनुष्यों के सेवन करने योग्य न होने से अनुपसेव्य हों । जैन मुनि अथवा जैन व्रती श्रावकके इन पाँचों प्रकार के अभक्ष्यों का जीवन पर्यन्त के लिये त्याग रहता है और भक्ष्य पदार्थों का भी वे सचित्त अवस्था में सेवन नहीं करते । जैन सुनि अथवा श्रावक का लक्ष्य रहता है कि अपना पेट भरने के लिये दूसरे जीवोंको बाधा न दी जावे । यह भाव तब तक प्रकट नहीं होता जब तक कि जीवोंकी नाना जातियों का ज्ञान और अपने हृदय में उनकी रक्षाका अभिप्राय जागृत नहीं होता । ]
गाथा - हे जीव ! तू मन वचन काय रूप तीनों योगोंसे पाँच प्रकार की विनय का पालन कर क्योंकि विनय-रहित मनुष्य तीर्थंकर प्रकृति के बन्धरूप अभ्युदय और मुक्ति को प्राप्त नहीं होते हैं ॥ १०२ ॥
विशेषार्थ - ज्ञान दर्शन, चारित्र, तप और उपचार के भेदसे विनयके पांच भेद हैं। पूज्य पुरुषों के प्रति यथा योग्य हाथ जोड़ना, उनके पैरों
१. ऐर्वादिकं क० वासुका ( क० टि० ) ककड़ी इति हिन्दी ।
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