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४८० षट्नाभृते
[५. १०३सर्वोपकारिस्त्वं । ( पालहि ) प्रतिपालय कुर्विति । ( मणवयणकायजोएण) , मनोवचनकाययोगेन आत्मव्यापारेण ( अविणयणरा सुविहियं ) अविनयनरा अविनतनरा वा सुविहितां तीर्थकरनामकर्म पूर्वकबन्धविशिष्टां । ( तत्तो मुत्ति न पावंति ) ततः कारणान्मुक्ति सर्वकर्मक्षयलक्षणोपलक्षितां न प्राप्नुवन्ति नैव लभन्ते।
णियसत्तीए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि। तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावच्चं दसवियप्पं ॥१३॥ निजशक्त्या महाशयः ! भक्तिरागेण नित्यकाले ।
त्वं कुरु जिनभक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् ।।१०३|| (णियसत्तीए महाजस) एकारस्योच्चारलाघवादत्र पादे द्वादशव मात्रा वेदितव्याः । अन्यथा त्रयोदशमात्रासद्भावाद्गाथाछन्दोभंगः स्यात् ।
में पड़ना, उन्हें आते देख उठकर खड़े होना तथा 'भले पधारे' आदि स्वागत के शब्द कहना ये सब विनय के प्रकार हैं। हे निकट भव्य ! तू मन वचन कायसे विनयके इन सब भेदोंका अच्छी तरह पालन कर । विनय का बड़ा माहात्म्य है। विनय-सम्पन्नता तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका कारण है और जो तीर्थकर हो गया वह मुक्तिको अवश्य ही प्राप्त होता है । इस प्रकार विनय अभ्युदय और मोक्ष दोनोंका कारण है। इसके विपरीत विनय रहित मनुष्य न सांसारिक अभ्युदय को प्राप्त होते हैं और न मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥१०॥ __ गाथार्थ हे महायश ! तू अपनी शक्तिके अनुसार भक्ति के रागसे निरन्तर जिनभक्तिमें उत्कृष्ट दश प्रकार का वैयावृत्य कर ॥१०॥
विशेषार्थ-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञके भेदसे मुनियों के दश भेद हैं। इन दश प्रकारके मुनियोंकी वैयावृत्य करना दश प्रकारका वैयावृत्य है। यह वैयावृत्य जिनभक्ति में उत्कृष्ट है इसलिये हे महायश के धारक मुने ! तू अपनी शक्ति-अनुसार भक्ति-पूर्वक दश प्रकारकी वैयावृत्यको निरन्तर कर | __गाथाके प्रथम पाद में 'णियसत्तीए' में एकारका उच्चारण लघुरूप होनेसे बारह मात्राए जानना चाहिये अन्यथा संस्कृत को तरह एकारका मात्र दीर्घोच्चारण मानने से तेरह मात्राएं हो जावेंगी और उस दशा में
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