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-५. ७०] भावप्रामृतम्
३९९ पैशून्यहास्यमत्सरमायाबहुलं तेन तथोक्तेन । पुनः कथंभूतेन । नान्येन, स्रवणेन निरन्तरसम्बन्धिना नानाधर्ममिषोपार्जितद्रव्येण अथवा सवनेन वनवाससहितेन । तथा चोक्तं
वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तपः । अकुत्सिते वर्त्मनि यः प्रवर्तते विमुक्तरागस्य गृहं तपोवनं ॥१॥ पयहि जिणवरलिंगं अभितरभावदोसपरिसुद्धो। भावमलेण य जीवो वाहिरसंगम्मि मयलियई ॥७०॥
प्रकटय जिनवरलिङ्ग अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः ।
भावमलेन च जोवो बाह्यसङ्गे मलिनः ।। ७० ॥ गया। 'अश्वत्थामा' मारा गया यह कहने से युधिष्ठिर स्नेही जनों में लघुता को प्राप्त हुए और कृष्ण कपट पूर्ण बालकका वेष रखनेसे अत्यन्त मलिन हुए। सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार थोड़ा सा विष बहुत भारी दुग्ध को दूषित कर देता है, उसी प्रकार थोड़ा सा छल भी बड़े-बड़े पुरुषों को दूषित कर देता है। मारोच, युधिष्ठिर और कृष्ण के वामनावतार की कथाएँ लोक में प्रसिद्ध हैं।
हे जीव ! तेरा यह नाग्न्य पद पैशुन्य, हास्य, मात्सर्व और माया से बहुल है-परिपूर्ण है । साथ ही स्रवण है अर्थात् नाना धर्मोके बहते द्रव्यको उपार्जित करने वाला है। अथवा सवणेण की संस्कृत छाया सवनेन मानकर वनवाससे सहित है, यह एक अर्थ भी किया जा सकता है अर्थात् तेरा यह नाग्न्य पद वनवास से सहित है परन्तु अन्तरङ्ग का विकार नष्ट हुए बिना मात्र वनवास कुछ कार्यकारी नहीं है । जैसा कि कहा है
बनेपि-रागी मनुष्यों के वनमें भी दोष उत्पन्न होते हैं और रागरहित मनुष्यों के घर में भी पञ्चेन्द्रियों का निग्रह रूप तपश्चरण होता है। जो मनुष्य निर्दोष मार्ग में प्रवृत्ति करता है उस वीतराग के लिये घर हो तपोवन है। .. - [यहाँ अन्तरङ्ग की परमार्थता से रहित मात्र नग्न-वेष को निन्दा की गई है । निर्दोष आचरण करने वाले मुनिका नग्न वेष तो मोक्ष-मार्ग का अपरिहार्य अङ्ग है, अतः उसकी निन्दा किसी भी तरह नहीं की जा सकतो।] - गाथार्थ हे जीव ! अन्तर्वर्ती भाव दोष से रहित होता हुआ तू जिनलिङ्ग-निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुद्राको धारण कर क्योंकि अन्तरङ्ग के दोष से यह जीव बाह्य पदार्थों के संपर्क में पड़कर मलिन हो जाता है ॥७०॥
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