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________________ -१. ३४] दर्शनप्राभृतम् ५३ तदैव तीर्थकर-परमदेवो भवतीति भावः । ( सम्मइंसण रयणं ) सम्यग्दर्शन-रत्नं (अग्धेदि सुरासुरे लोए ) अर्घ्यते पूज्यते बहुमूल्यं भवति देवदानवभुवने। एतद् रत्नमूल्यं कोऽपि कर्तुं न शक्नोति करोति चेन्मूल्यं तदा सद्यः कुष्ठी मुखे भवेत् ॥३३॥ ठूण य मणुयत्तं सहियं तह उत्तमेण गुत्तेण । लभ्रूण य सम्मत्तं अक्खय सुक्खं च मोक्खं च ॥३४॥ दृष्ट्वा च मनुजत्वं सहितं तथा उत्तमेन गोत्रेण । लब्ध्वा च सम्यक्त्वं अक्षयसुखं च मोक्षं च ॥३४॥ (ठूण य ) दृष्ट्वा च ज्ञात्वा । किं ? । मणुयत्त) मनुजत्वं मनुष्य-जन्म अनेकदृष्टान्तै दुर्लभं विचार्य महासमुद्रे-करच्युत-रत्नमिव । ( सहिअं तह उत्तमेण गुत्तण ) उत्तमेन गोत्रेण कुलेन सहितं संयुक्तं । ( लद्ध ण य सम्मत्तं ) सम्यक्त्वं घ लब्वा। ( अक्खय सुक्खं च मोक्खं च ) एतत्सामग्रयं प्राप्य अक्षयसौख्यं निज-शुद्ध-बुद्ध परमात्म-श्रद्धान-ज्ञानानुचरणस्वभावोत्थं परमानन्दलक्षणं सुखं भवति, न केवलमक्षयसुखं भवति मोक्षं च द्रव्यकर्मनोकर्मरहितं ऊर्ध्वगमनलक्षणं परमनिर्वाणं च चकास्ति ॥ ३४ ॥ से युक्त इस संसार में सम्यग्दर्शन, सबके द्वारा पूजा जाता है । इस रत्न का मूल्य कोई भी करने को समर्थ नहीं है। यदि उसका कोई मूल्य करता भी है तो वह मुहमें शीघ्र ही कुष्ठो हो जाता है। अर्थात् अपने उपदेश के द्वारा जो सम्यग्दर्शन के महत्व को कम करता है उसके मुख में कुष्ठ होता है ॥३३॥ गाथार्य-जो उत्तम गोत्र से सहित मनुष्य जन्मको अत्यन्त दुर्लभ विचार कर सम्यक्त्व को प्राप्त होता है वह अविनाशी सुख तथा मोक्षको प्राप्त होता है ॥३४॥ · विशेषार्थ-जिस प्रकार हाथसे छट कर महा समद्रमें गिरा हा रत्न पाना अत्यन्त दुर्लभ हो जाता है उसी प्रकार उत्तम गोत्रसे युक्त मनुष्य जन्मका पाना अत्यन्त दुर्लभ है। इस तरह अनेक दृष्टान्तोंके द्वारा मनुष्य जन्मको दुर्लभताका विचार करके जो सम्यक्त्व-सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है वह निज शुद्ध बुद्ध अर्थात् सर्वज्ञ वीतराग स्वभावसे युक्त परमात्माके श्रद्धान ज्ञान और चारित्र स्वभावसे उत्पन्न परमानन्द--लक्षण सुखको प्राप्त होता है । न केवल अविनाशी सुखको प्राप्त होता है किन्तु द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकमसे रहित ऊर्ध्वगमन लक्षणसे युक्त निर्वाणको भी प्राप्त होता है ।। ३४ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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