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षट्प्राभृते प्रवलयन् श्रोणिद्वितयभागविलंबिपीतवस्त्रो नियुद्धकुशलं पर्वतशिखरोन्नतं प्रतिमल्लं चाणूरमाहत्य सहसा सिंहवदावभासे । तं दृष्ट्वा रुधिरोद् मोग्रलोचनः कंसः स्वयं मल्लतां प्राप्यागच्छति स्म । तमुग्रसेनतनयं जन्मान्तरद्वेषात् करेण चरणे संगृह्याकाशे भ्रामयन्नल्पाण्डमिव यमराजस्य समीप उपायनीकृतुमिव स कृष्णो भूमावास्फालयामास । तदा कृष्णमस्तके व्याम्नः कुसुमानि प्रपेतुः देवदुंदुभयो ध्वनि चक्रुः । वसुदेवसेनासमुद्रे प्रक्षोभणात् कोलाहलध्वनिरुत्तस्थे । मुशलीवीरवरो विरुद्ध. नृपतीनाक्रम्य रंगे स्थितः । स्वानुज स्वीकृत्य गजितं चकार । विष्णुस्त्रिखण्डलक्ष्म्या कटाक्षितः ।
इति श्रीभावप्राभृते द्रव्यलिंगिनो वशिष्ठमुनेः कथा परिसमाप्ता।
गर्जना कर रङ्गभूमि से आकाश में ऐसे उछले मानों घरके अङ्गण में ही जा पहुँचे हों। पुनः आकाश से वज्रके समान पृथिवी पर आ पड़े । उस समय उन्होंने पृथिवी पर पैर इतने जोरसे पटके कि उनके आघात से पर्वतोंके सन्धि बन्धन भी विचलित हो गये । वे बार-बार उछलते थे, रङ्गभूमि में चारों ओर चक्कर लगाते थे, बढ़ते हुए सिन्दूर से रंगे दोनों भुजदण्डों को क्रोध-पूर्वक घुमाते थे, तथा उनको कमर को दोनों ओर पीताम्बर लटक रहा था। वे देखते-देखते बाहयुद्ध में कुशल तथा पर्वतके शिखर के समान ऊँचे प्रतिद्वन्द्वी चाणर मल्लको मार कर सिंहके समान सुशोभित होने लगे। चाणर को मरा देख रुधिर के निकलने से भयंकर नेत्रोंको धारण करनेवाला कंस स्वयं मल्ल बनकर आया। कृष्ण ने जन्मान्तर के द्वेष से उस उग्रसेन के पुत्र-कंसका पैर अपने हाथसे पकड़ उसे छोटे अण्डेके समान आकाश में घुमा दिया और यमराज के भेंट भेजने के लिये ही मानों उन्होंने उसे पृथिवी पर पछाड़ दिया। उस समय कृष्ण के मस्तक पर आकाश से पुष्प बरसे और देव दुन्दुभियोंने शब्द किये । वसुदेव को सेनारूपी समुद्र में क्षोभके कारण कोलाहल का शब्द उठा । वोरशिरोमणि बलदेव भी विरुद्ध राजाओं पर आक्रमण कर मैदान में खड़े हो गये । बलदेव ने अपने छोटे भाई को स्वीकार कर गर्जना की अर्थात् सबके सामने परिचय देते हुए प्रकट किया कि कृष्ण हमारा छोटा भाई है। तीन खण्ड की लक्ष्मी ने श्रीकृष्ण की ओर कटाक्षपात किया।
इस प्रकार भावप्राभृतमें द्रव्यलिङ्गी वशिष्ठमुनिकी कथा समाप्त हुई ।
१. गर्जक। २. परिसंपूर्णाक०।
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