SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -२. १-२] चारित्रप्राभृतम् कुन्दकुन्दाचार्यः । कथंभूतान् ? सर्वज्ञान् । ( सम्वदंसो ) सर्वदर्शिनो लोकालोकावलोकनशीलान्, अपरं किंविशिष्टान् ? सर्वज्ञान् । ( णिम्मोहा ) निर्मोहान् मोहनीय-कर्म-रहितान् । भूयोऽपि किंरूपान् ? ( वीयराय ) वीतरागान् वीतः क्षयं गतो रागो येषां ते वीतरागास्तान् । 'अज क्षेपणे' इति ताबद्धातु 'अजेर्वीः' इति सूत्रण वीयादेशः । निष्ठाक्त प्रत्यये वीत इति निष्पद्य ते । वीयराय इत्यत्र शस लोपः । भूयोऽपि कि विशेषणाञ्चितान् ? (परमेट्ठी ) परमेष्ठिनः । कोऽर्थः ? परमे इन्द्र चन्द्रनरेन्द्र-पूजिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठीति व्युत्पत्तेः समवसरणसम्पत्प्रमण्डितानित्यर्थः । अपरं कथंभूतान् सर्वज्ञान् ? ( तिजगवंदा ) त्रिजगद्वन्दितान् त्रिभुवनस्थितभव्यजनपूजितानित्यर्थः । पुनरपि कथंभूतान् ( अरहंता ) [अ] अरिर्मोहः, रकारेण रजो लभ्यते तत्तु ज्ञानावरण-दर्शनावरण-कर्मद्वयं लभ्यते तथा तेनैव प्रकारेण रहस्यमन्तरायः कथ्यते तेन घाति-कर्म-चतुष्टय-हननादिन्द्रादि विशेषार्थ-जो समस्त द्रव्यों और उनकी कालत्रयवर्ती समस्त पर्यायोंको एक साथ विशेषरूप से जानते हैं उन्हें सर्वज्ञ कहते हैं। जो समस्त लोक और अलोक को सामान्य रूपसे जानते हैं उन्हें सर्व-दर्शी कहते हैं। जो मोहनीय कम से रहित हैं उन्हें निर्मोह कहते हैं। जिनके राग द्वेष आदि दोष नष्ट हो गये हैं वे वोतराग कहलाते हैं। 'अज धातु का क्षेपण-नष्ट करना अर्थ होता है, निष्ठा-संज्ञक 'क्त' प्रत्यय होने पर अज धातुके स्थान में 'अजेर्वीः' इस सूत्रसे वी आदेश हो जाता है, इस तरह जिनके राग द्वेष आदि विकार नष्ट हो गये हैं वे वीतराग कहलाते हैं। जो इन्द्र चन्द्र नरेन्द्र आदिके द्वारा पूजित परम पदमें स्थित हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। जो तीनों लोकोंके द्वारा वन्दनीय हैं उन्हें त्रिजगद्वन्दित कहते हैं । जिनके सम्यग्दर्शनादि गुण प्रगट होने की योग्यता है उन्हें भव्य कहते हैं । अरहन्त भगवान सर्वज्ञ आदि विशेषणोंसे विशिष्ट हैं। अरहंत शब्द का अर्थ लगाते हुए संस्कृत टोकाकारने 'अ' से अरि अर्थात् मोहनीय कर्मको लिया और 'र' से रज तथा रहस्य का ग्रहण किया है । रजका अर्थ ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म है और रहस्य से अन्तरायका बोध होता है, इस प्रकार अर अर्थात् चार घातिया कर्मोका जिन्होंने घात किया है वे अरहंत कहलाते हैं । अथवा प्राकृतका अरहन्त शब्द संस्कृतको 'अर्ह' धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ पूजाके १. विशेषेण इता गता नष्टा रागा यस्य स वीतरागः । वीत शब्दः 'वि' उपसर्य पूर्वक 'इण मतौ' धातुतः निष्ठा प्रत्यये सत्यपि सिध्यति।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy